पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३१९

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पेट ] २९७ की पूर्ति के अर्थ, न करता हो । यों हम उनको धन्य कहेंगे जो अपने को चिंता न करके दूसरों के गलन में सयत्न रहते हैं। पर ऐसे लोगों की संख्या सदा सब ठौर बहुत स्वल्प होती है। इससे ऐसों को अदृश्य देवताओं की कोटि में रहने दीजिए और उन्हें भी लंका के महाराक्षसों में गिन लीजिए जो अपना पापी पेट पालने के अनुरोध से दूसरों को कुछ भी कष्ट क्यों न हो, तनिक ध्यान नहीं देते। ऐसे भी लोगों की संख्या यहां बहुत नहीं है। किंतु दिन दूनी दुर्दशा के बस हो के दस बीस वर्ष में हो जाय तो आश्चर्य नहीं है क्योंकि 'बुभुक्षितः किन्न करोति पापम्' । रहे सर्वसाधारण, वे जो पेट को धोखा देने के लिए बात २ पर बहुत फूंक २ पांव न धर सके तो कोई विचारशील उन्हें दोष भी नहीं लगा सकता क्योंकि सभी जानते हैं कि पेट की आंच बड़ी कठिन होती है । उसका सहन करना हर एक का काम नहीं है। इसकी प्रचंडता में लोक परलोक, धर्म कर्म सभी के विचार भस्मीभूत हो जाते हैं। यह खाल की खलीती यदि उचित खाद्य में, स्वल्प परिश्रम के साथ भरती रहे तो तो क्या ही कहना है, सभी इन्द्रियां पुष्ट मन हृष्ट वृद्धि फुरतीली और चित्त वृत्ति सचमुच रसीली बनी रहती है। पर यदि धाए धूपे किसी न किसी भांति कुछ न कुछ मिलता रहै तो भी सुख, स्वच्छन्दता, नरुज्य एवं निश्चिन्तता का तो नाम न लीजिए। हां, जीवन पहिया जैसे तैसे लुढ़कता पुढ़कता चला जायगा। किंतु यदि, परमेश्वर न करे, कहीं किसी रीति से ठिकाना न हुआ तो बस कहीं ठिकाना न समझिए । इस क्षुधा यंत्र का नाम ही दोजख अर्थात् नर्क है। फिर इसके हाथों बड़े बड़ों को जीते जी नक यातना भोगनी पड़े तो क्या आश्चर्य है। और परमेश्वर को न जाने क्या इच्छा है कि इन दिनों बरसों से चारों ओर जन समुदाय की उदर पूर्ति में विघ्न ही विघ्न बढ़ाते हुए देख पड़ते हैं। इधर तो करोड़ों देशभाई दिन २ 'नहिं पट कटि नहि पेट अघाही' का उदाहरण बनते जाते हैं और जिनका पेट भरा है वे इनकी ओर से सांस डकार भी नहीं लेते। उधर को हमारे 'कर्तुमकर्तुमन्यथा कतु समर्थ' प्रभू हैं, उन्होंने यह सिद्धांत कर रक्खा है कि 'मोरपेट हाहू, मैं ना देहों काहू' । यह लक्षण देख २ के बिचारे भारत भक्त अपनी वाली भर पेट काट २ के भी उद्धार का उपाय करते हैं और इधर उधर पानो पहाड़ लांघते हुए, पेट पकड़े दौड़े फिरते हैं । पर जब देखते हैं कि कोई युक्ति नहीं चलती तो विवशतः कोई २ पेट मिसूसा मार के बैठ रहते हैं, कोई २ दूसरों की पेट पीड़ा दूर करने के उद्देश्य से उसकी भांति चिल्लाया करते हैं जिसके पेट में पीर उठती है। जहां यह दशा है वहां सबके सभी लोगों को मुंह बाए पेट खलाए पड़ा रहना उचित नहीं है। नोचेत् जठराग्नि फैलती रहेगी तो एक न एक दिन संभव है कि किसी को जलाए बिना न छोड़े । तस्मात् यही मुख्य कर्तव्य है कि सब जने सबको सहोदर भाव से देखें और समझ रखें कि पेट सभी का येनकेन प्रकारेण पालनीय है। चाहे मखमल सा चिकना और मक्खन सा मुलायम हो, चाहे कठौती सा कठोर हो, चाहे हांडी सा दृश्य अथवा पुर सा बिहंगम हो, मोटी झोंटी खरी खोटी चार रोटी सभी के लिए चाहनी पड़ती है। और इन्ही के प्राप्ति के अलसेठे मिलाना परम कृत्य है। यदि देव ने हमें कुछ सामर्थ्य दी है तो चाहिए कि उसे अपने ही पेट में न