पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३२०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२९८ [प्रतापनारायण-ग्रंथावली पचा डालें, कौरा किनका दूसरों की आत्मा में भी डालें। और जो यह बात अपनी पहुँच से दूर हो तो भी केवल मुंह से नहीं बरंच पेट से यह प्रण कर लेना योग्य है कि पेट में पत्थर बांध के परिश्रम करेंगे, दुनिया भर के पेट में पांव फैलावेंगे, सब के आगे न पेट दिखाते लजाएंगे न पेट चिरवा के भुस भराने में भय खाएंगे पर अपनी और अपनों को पेटाग्नि बुझाने के यत्न में जब तक पेट से सांस आती जाती रहेंगी तब तक लगे ही रहेंगे । यों तो पेट की लपेट बहुत भारी है पर आज इस कथा को यहीं तक रहने दीजिए और समझ लीजिए की इतनी भी पेट पड़े गुण ही करेगी। खं० ७, सं० ९ ( १५ अप्रैल ह. सं०७) गंगा जी की स्थिति आज कल हिंदू समुदाय में अनेक लोगों को दो बातों की धुन चढ़ी हुई है कि गंगा जी की आयु केवल आठ वर्ष के लगभग शेष रह गई है और गंगा जी सदा बनी रहेंगी। इन दोनों मतों के लोगों ने अपने २ सिद्धान्त के पुष्ट रखने में यथासंभव कोई युक्ति अथवा प्रमाण उठा नहीं रक्खे । और काल के प्रभाव से हमारे धर्म ग्रंथों को पंडित नामधारियों ने बना भी ऐसा ही रक्खा है कि मोम की नाक चाहे जिधर फेर लो। चाहे जिस विषय के खंडन में कुछ वाक्य ढंढ लीजिए चाहे जिसके मंडन में, सभी मिल जायंगे। पर हमारी समझ में इस प्रकार के झगड़े उठा के आपस में वैमनस्य बढ़ाना निरा व्यर्थ है। विचार के देखिए तो हैं दोनों बातें सत्य । देश काल और पात्र का विचार किए बिना शास्त्र के किसी बचन पर हठ करना अच्छा नहीं । शास्त्रकारों की केवल एक ही प्रकार के लोगों पर दृष्टि न थी। वे जानते थे कि 'भिन्न रुचिहिलोकः' । अतः उनके बचनों में जहां भिन्नता पाई जाय वहां समझ लेना चाहिए कि वे त्रिकाल- दर्शी और सत्यवादी किसी विशेष कारण से विशेष रूप के जन समूह और विशेष समय के लिए जो कुछ लिख गए हैं वह है सत्य ही, पर समझने वाला चाहिए। इस रीति से हम देखते हैं कि इस समय लोग पश्चिमीय विद्या के प्रभाव और अपने धर्म, कर्म, रीति नीति, वस्तु व्यक्ति इत्यादि की ममता के अभाष से केवल रंग हो के भारतीय रह गए हैं, सो भी मानों चरबी मिला साबुन मल २ कर चाहते हैं कि किसी प्रकार ऊपर का चमड़ा छिल जाय और भीतरी लाल २ रंगत निकल आवै तो अत्युत्तम है। ऐसों के सामने ईश्वर ही की महिमा बनी रहे तो बड़ी बात है क्योंकि उनके गुरु परम्परा के देश में नास्तिकता की छूत बढ़ती जाती है । वेद शास्त्र गंगा भवानी की तो बात ही का है, इन का वास्तविक महत्व संस्कृत पढ़े बिना और प्राचीन काल के रससित कवीश्वरों की लेखनी का गूढ़ तत्व जाने बिना कदापि समझ में नहीं आने का। उसके माते इन्हें