पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३२१

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गंगा जी की स्थिति ] २९९ मागरी का काला अक्षर भैंस बराबर है। बरंच मैंस दूध देती है किंतु इन अक्षरों की चर्चा से इन के प्राण सूख जाते हैं। इस से यह कहना चाहिए कि अक्षर काले बुखार के बराबर है। ऊपर से प्रयाग यूनिवर्सिटी ने हिंदी का गला काट वह पालिसी अवलंबन की है कि आठ वर्ष में संस्कृत का प्रचार तो दूर रहा, आश्चर्य नहीं कि हिंदू जाति को लड़की के नाम रखने के लिए शब्द भी न मिले। इस पर भी तुर्रा यह है कि जो लोग संस्कृत, नागरी के ममत्व का अभिमान एवं अपने ऊपर आयंत का गुमान रखते हैं उन में से बहुतेरों का सिद्धांत यह है कि "माला लक्कड़ ठाकुर पत्थर गंगा निरबक पानी"। सो पानी भी कैसा कि न सोडावाटर के समान जाति कुजाति का उच्छिष्ट, न 'वरुण- प्रिया' की भांति स्वादिष्ट । फिर पोने और छूने मे किसे भाव जब तक विलायत जा के और नाम रूप वदल के न आवै । हाय गंगा जल, एक दिन तुम इसी भारत में अमृतमय कहलाते थे पर आज नहरों के रूप में भिन्न भिन्न हो कर पराधीनता में बहे २ फिरते हो और खेतों की उपज के हक में विष का सा काम करते हो। जिस धरती पर तुमने आश्रय ले रक्खा है उस में लाखों असंस्कृत मृतक गाड़े जाते हैं, करोड़ों निरपराधी जीव मारे जाते हैं। जिस मेघमंडल की छाया में तुम्हारी स्थिति है उसे हवन का सुगंधित एवं गुणपूरित धुआं दुर्लभ हो गया है। उसके स्थान पर पन्थर के कोयले और मट्टी के तेल का अरुचिकारक तथा दुर्गन्धप्रसारक घूम छाया रहता है। पान फूल, धूप कर्पूर से तुम्हें सुवासित रखने वाले दिन २ दीन होते जाते हैं । नगर भर का अघोर और कहीं २ बबूल की छाल के साथ सड़े हुए चमड़े का मानों पानी तथा अनाथ मनुष्य एवं पशुओं के बिन जले और अधजले सहस्रो मृत: शरीर तुम्ही में फैंके जाते हैं। फिर तुम अपना रूप गुण बदल डालो तो क्या दोष है ! भगवति गंगे! क्या सर्वगुणहीन हिंदुओं के हाथ से बिडंबना सहन करते हुए अभी तृप्त नहीं हुई हो जो आठ वर्ष और इनकी तथा अपनी दुर्दशा देखने की इच्छा रखती हो ? तुम्हारा रहना तभी शोभा देता था जब सूर्यवंशाव- तंस मर्यादा पुरषोत्तम श्रीमान भगवान रामचंद्र के वृद्ध प्रपितामह महाराज भगीरथ ने कई पीढ़ी की कटिन तपस्या के उपरांत तुम्हें प्राप्त किया था और उनके वंशजों ने भागी- रथी नाम से तुम्हारा गुणगान करने में अपना गौरव मान रक्खा था और समस्त संसार को विश्वास करा दिया था कि परम प्रतापी रघुकुल राजेंद्रगण श्रीमती भागीरथी को निज बंशजा कन्या की भांति आदर देने ही में अपना महत्व जानते है । तदुपरांत महाराज शांतनु ने तुम्हें अपनी प्राणप्रिया बना के और बीरशिरोमणि भीष्म पितामह ने तुम्हारे हो नाते गांगेय पद पा के सारे जगत को निश्चय करा दिया था कि विश्वविजयी चंद्रवंशी महिपाल जनहुनंदिनी को अपनी कुल श्री का संमान करते हैं। जिस समय सूर्यचंद्रवंश के प्राबल्य को दुष्काल रूप राहु ने ग्रास करना आरंभ किया तो महामान्य बिप्रवंश ने तुम्हारी महिमा रक्षित रखने का भार लिया और विद्या, प्रतिष्ठादि गुण श्रेणी से भूषित होने पर भी किसी अन्य विषय का आश्रय न लेकर लोक परलोक का निर्वाह केवल तुम्ही पर निर्भर कर के गंगापुत्र के नाम से अपना परिचय दिया। पर आज तुम्हारे पिता, पति, पुत्र सभी के बंशधर सर्वलक्षणहीन, सर्वथा दीन, महा मलीन दशा में दलित