पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३२२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३०० । [प्रतापनारायण-ग्रंथावली हो रहे हैं। वरंच अपने एक २ काम से सूर्य, चंद्र एवं मुनि वृद का नाम डुबो रहे हैं। फिर तुम किस सुख की आशा से संसार को मुख दिखाने का मानस करती हो ? नहीं नही, गंगा जी अब नहीं हैं । हम इतनी बकबक न जाने किस उमंग में कर गए । भला होती तो भारत की यह दशा होती? जिनका नाम लेने से मन के पाप और तन के ताप का विनाश हो जाता है उनके समक्ष में यह कहां संभव था कि हम दुर्बुद्धि एवं दुर्गति के आधार बन जाते । इससे निश्चय गंगा नहीं हैं, केवल गैजेज ,Ganges) नाम्नी नदी का जल मात्र अवशिष्ट है । सो भी आश्चर्य नहीं कि आठ सात वर्ष में जाता रहे । क्योंकि यहां के धन, बल, विद्या, कृषि, वाणिज्य, शिल्प सेवादि सभी निर्वाहोपयोगी उत्तम गुण और पदार्थ विदेश को लद गए। फिर यदि पानी और मट्टी में भी कोई अच्छाई पाई जायगी तो क्या संभावना है कि हमारे हाथ बनी रहने पावेगी। जहां नोन और घास तक टैक्स की छूत से नहीं बचे वहां जल के बच रहने की भी क्या आशा है ? बचे भी तो हमें क्या, हम तो सामयिक नीति के वश 'अशनं बसनं वासो येषां चैवाविधानतः' का प्रत्यक्ष उदाहरण बन रहे हैं और बनते हो जाते हैं । फिर हमारे लिए 'मगधेन समा काशी गंगाप्यंगारवाहिनी वाला वाक्य यों न चरितार्थ होगा ? यद्यपि चरितार्थ हो ही रहा है तो भी वर्तमान लक्षण के देखे कौन सहृदय न मान लेगा कि यदि कलियुग का प्रभाव यों ही बना रहा तो आठ वर्ष बीतते २ 'कलो दश सहस्राणि विष्णुः तिष्टति मेदिनी। तदद्ध जाह्नवीतोयं तदद्ध ग्राम देवता' वाली भविष्यत् वाणी को सफल करते हुए भगवती भागीरथी का सर्वथा लोप न हो जायगा। ___ अब रहा यह कथन कि गंगा जी सदा बनी रहेंगी। सो इस रीति से सत्य है कि यदि प्रेम ईश्वर का रूप है और ईश्वर अनादि अनंत एवं सर्वथा स्वतंत्र है तो संसार में चाहे कोटि विघ्न हों, कोटि संकट हों किंतु प्रेमियों का प्रादुर्भाव समय २ पर होता ही रहेगा और उनको हृदय भूमि में भगवान प्रेमदेव स्वेच्छानुसार बिहार करते ही रहेंगे । अथच बिहार कभी अकेले होता नहीं है, इस न्याय से उनके साथ सर्वशक्ति समूह का आविर्भाव होना स्वयंसिद्ध है। और जहां और सब शक्ति होंगी वहां त्रितापहारिणी. परमानंद प्रसारिणी आदि शक्ति श्री गंगा महारानी क्यों न होंगी ? गंगा के बिना हमारे पाप संताप कोन दूर कर सकता है ? और इनके दूर हए बिना हमारा मनोमंदिर प्रेम लीला के योग्य क्योंकर हो सकेगा? फिर यह माने बिना कैसे निर्वाह हो सकता है कि जिनके हृदय में आर्यत्व की उमंगें, धर्म प्रेम सौजन्य की तरंगें कभी स्वप्न में भी क्षण भर को भी लहरायंगी उन्हें गंगा छोड़ जायंगी, अथवा गंगा को वे कहीं जाने देंगे जिन्होंने देववाणी एवं वृज भाषा देवो की दया से जान लिया है कि भगवान बैकुण्ड बिहारी का चरणामृत, देवाधिदेव महादेव का शिरोभूषण, जगत् पिता के कमंडल को सिद्धि, भारतमाता के शृङ्गार की मौक्तिकमाला गंगा ही हैं ? हमारे परम बिरागो महर्षिगग यदि त्रैलोक्य में किसी पदार्थ के अनुरागी थे तो इसी ब्रह्मद्रव के। जिन्हें गंगा के दर्शन, मनन, पान, नाम स्मरणादि में अनंत सुख का अनुभव होता है, कहां तक