पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३२४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३०२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली इसो से अन्य नभचारियों की अपेक्षा आद्रित समझें जाते हैं। फिर कौन न मान लेगा कि बात की बड़ी बात है । हो, बात की बात इतनी बड़ी है कि परमात्मा को सब लोग निराकार कहते हैं तो भी इसका संबंध उसके साथ लगाए रहते हैं । वेद ईश्वर का बचन है, कुरआनशरीफ कलामुल्लाह है, होली बाइबिल वर्ड आफ गाड है। यह बचन, कलाम और बर्ड बात हो के पर्याय हैं सो प्रत्यक्ष में मुख के बिना स्थिति नहीं कर सकती। पर बात की महिमा के अनुरोध से सभी धर्मावलंबियों ने "बिन बानी वक्ता बड़ योगी" वाली बात मान रक्खी है। यदि कोई न माने तो लाखों बातें बना के मनाने पर कटिबद्ध रहते हैं। यहां तक कि प्रेम सिद्धांती लोग निरवयव नाम से मुंह विवकावेंगे । 'अपाणिपादो जवनो गृहोता' इत्यादि पर हठ करने वाले को यह कहके चात में उड़ावैगे कि "हम लंगड़े लूले ईश्वर को नहीं मान सकते । हमारा प्यारा तो कोटि काम सुंदर स्याम बरण विशिष्ट है।' निराकार शब्द का अर्थ श्री शालिग्राम शिला है जो उसकी स्यामता का द्योतन करती है अथवा योगाभ्यास का आरंभ करने वाले कों आंखें मूंदने पर जो कुछ पहिले दिखाई देता है वह निराकार अर्थात् बिलकुल काला रंग है। सिद्धांत यह कि रंग रूप रहित को सब रंग रंजित एवं अनेक रूप सहित उहरावेंगे किंतु कानों अथवा प्रानों वा दोनों को प्रेम रस से सिचित करने वाली उसकी मधुर मनोहर बातों के मजे से अपने को बंचित न रहने देंगे। जब परमेश्वर तक बात का प्रभाव पहुँचा हुआ है तो हमारी कौन बात रही ? हम लोगों के तो "गात माहिं बात करामात है"। नाना शास्त्र, पुराण, इतिहास, काव्य, कोश इत्यादि सब बात ही के फैलाव हैं जिनके मध्य एक २ बात ऐसी पाई जाती है जो मन, बुद्धि, चित्त को अपूर्व दशा में ले जाने वाली अपच लोक परलोक में सब बात बनाने वाली है । यद्यपि बात का कोई रूप मही बतला सकता कि कैसी है पर बुद्धि दौड़ाइए तो ईश्वर को भांति इस के भी अगणित ही रूप पाइएगा। बड़ी बात, छोटी बात, सीधी बात, टेढ़ी बात, खरी बात, खोटी बात, मीठो बात, कड़वो बात, भलो बात, बुरी बात, सुहाती बात, लगती बात इत्यादि सब बात ही तो है ? बात के काम भी इसी भाँति अनेक देखने में आते हैं । प्रीति बैर, सुख दुःख, श्रद्धा घृणा उत्साह अनुत्साहादि जितनी उत्तमता और सहजतया बात के द्वारा विदित हो सकते हैं दूसरी रीति से वैसी सुविधा ही नहीं । घर बैठे लाखों कोस का समाचार मुम्व और लेखनी से निर्गत बात ही बतला सकती है। डाकखाने अथवा तारघर के सहारे से बात की बात में चाहे जहाँ की जो बात हो जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात आ पड़ती है, बात जाती रहती है, बात उखड़ती है। हमारे नुम्हारे भी सभी काम बात ही पर निर्भर करते हैं-बातहि हाथी पाइए, बातहि हाथी पाँव" । बात ही से पराए अपने और अपने पराए हो जाते हैं । मक्खीचूस उदार तथा उदार स्वल्पव्ययी, कापुरुष युद्धोत्साही एवं युद्धप्रिय शांतिशोल, कुमार्गी सुपयगामी अथव सुपंथी कुराही इत्यादि बन जाते हैं । बात का तत्व समझना हर एक का काम नहीं है और दूसरों की समझ पर आधिपत्य