पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३२६

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असंभव है प्रेम के बिना आत्मिक शांति असंभव है। हिंदी का पूर्ण प्रचार हुए बिना हिंदुओं का उद्धार असंभव है। हिंदुओं के भली भांति सुधरे बिना हिंदुस्तान का सुधार असंभव है। दूसरों के भरोसे अपनी भलाई की आशा करने पर यथार्थ सिद्धि असंभव है। भय, लज्जा और धर्माधर्म का विचार रखने में संसार के काम चलना असंभव है। कपट त्यागे बिना सच्ची मित्रता असंभव है। कुपथ्य करने से रोग की शांति असंभव है। स्वार्थी से वास्तविक परोपकार असंभव है । उदार पुरुष को धन का संकोच न होना असंभव है। ईश्वर की सर्वव्यापकता के विश्वासी से पाप कर्म असंभव है। संगीत साहित्य और सौंदर्य के स्वाद बिना सहृदयता असंभव है। दो चार बार धोखा खाए बिना अनु मशीलता असंभव है। अदालत में जा के सत्यवादी बना रहना असंभव है। कपट का भंडा फूट जाने पर संभ्रम रक्षा असंभव है। मतवादी में धार्मिकता असंभव हैं। धन की उन्नति बिना किसी लौकिक विषय की उन्नति भसंभव है। गोरे रंग वालों से निष्पक्षता असंभव है। जिस विषय में पूरा अनुभव न हो उसमें मुंह खोल के विज्ञ मंडली के मध्य प्रशंसा पाना असंभव है। शास्त्रार्थ से ईश्वर का सिद्ध कर देना असंभव है । दुःख और दुर्व्यसन से पूर्णतया बचे हुए जीवन यात्रा असंभव है। बंधु विरोध करके लाख पतुरता के अच्छत सुख संपत्ति बनाए रखना असंभव है। निरुत्साही से कोई काम होना असंभव है। प्रजा विरोधी से राजभक्ति असंभव है। इन सिद्धांतों को अयथार्थ ठहराने की मनसा से विवाद उठा के जय लाभ करना असंभव है । खं० ७, सं० १. (१५ मई ह० सं०७) देखिये तो (जरा मन लगा के पढ़िये ) यों तो सभी देशों का गौरव वहां के शूर सती और कवियों पर निर्भर होता है किंतु हमारा भारतवर्ष सदा से इन्ही पुरुषरत्नों के द्वारा अलंकृत रहा है। आजकल इस की जो कुछ दुर्दशा हो रही है उसके विशेष कारणों में से एक यह भी है कि बहुत दिन से ऐसे लोगों का चरित्र सर्वसाधारण को भलीभांति नहीं विदित होता । जिन्होंने बरसों स्कूल में पढ़ कर बड़े२ पद प्राप्त किए हैं वे भी बहुधा नही ही जानते कि हमारे