पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३३०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३.८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली साहब, ईश्वर आप की तरह स्वल्प सामर्थी नहीं है जो मार गलने वा मर जाने के उपरांत जिला देने अथवा जी उठने की सामथ्र्य न रखता हो। वह मृत्यु और जीवन दोनों का अधिष्ठाता है । इस न्याय से स्वेच्छानुसार अपने पराए अथच सब के साथ दोनों को व्यवहृत कर सकता है। और सुनिए, चोरी, जारी, छल, कपट इत्यादि केवल आप ऐसों के पक्ष में बुरे हैं किंतु परमात्मा किसे कैसा समझता है यह आप की समझ में न कभी आया है न आवैगा । फिर इन बातों से क्या । यदि वह चोरी करेगा तो आप तो आप ही हैं आप के बाप भी उसे दंड नहीं दे सकते । आप के देखते २ आप के कितने ही संबंधियों के प्राण उड़ा ले गया तब आपने क्या बना लिया था ? फिर ऐसे कुतकों के द्वारा आप का यह विचारना व्यर्थ है कि हम किसी सच्चे विश्वासी को डिगा देंगे अथवा बातें बना के जीत लेंगे। पर यह विषय तो तर्क वितर्क का है ही नहीं। इस में तो केवल अनुभव का काम है । चित्त को शुद्ध कर के, मन एकाग्र कर के, कुछ दिन अनुभव कर देखिए तो विदित हो जायगा कि जो कुछ भगवान श्रीकृष्णचंद्र ने आज्ञा दो है कि "यो यथा मां प्रपद्येत तं तथैव भजाम्यहं"। और महाप्रभु श्री बस्लभाचार्य ने जगत के उद्धारार्थ शिक्षा दी है कि "सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो ब्रजाधिपः" । वही भजनपरायण महात्मा कबीर ने अपने और अन्यान्य भक्तों के अनुभव द्वारा निश्चय कर लिया है कि 'हरि जैसे को तैसा है' । सच्चे विरागियों के लिये, जिन्हें संसार तो क्या अपने ही शरीर का मोह नहीं है, ईश्वर निराकार, निरवयव, निर्गुण, अकर्ता, अभोक्ता इत्यादि है और केवल ज्ञानियों के लिये, जो विचार करने के अतिरिक्त हाथ पांव हिलाने का अवसर ही नहीं पाते, परमेश्वर भी 'पग बिन चले सुनै बिन काना, कर बिन करम कर विधि नाना' इत्यादि विशेषण विशिष्ट है। परंतु जिन्हें घर बार छोड़ के बन में जा बैठना और हस्त पदादि होते हुए निकम्मे बन बैठने की रुचि नहीं है उन के लिए वह उन की मनोगति के अनुसार अनेक रूप संपन्न भी है । योगियों के लिए परम योगीश्वर, महान शोभामयी प्राणप्रिया को अदाग में धारण किये रहने पर भी अष्टप्रहर समाधि में तत्पर रहता है । वोरों के लिये महाधीर,धुरंधर; बीरबर, खड्ग, चक्र, त्रिशूलादि नाना शस्त्रास्त्र सबित रहने पर भी केवल हुँकार के द्वारा शत्रु निकर के निमित्त प्राण शोषक, भयंकर है । रसिकों के लिये रसिक शिरोमणि, कोटि काम सुंदर, महामनोहर है। कहां तक कहिए यह कहने सुनने की बातें ही नहीं हैं तो भी कहने वाले कही गए हैं जिन के रही भावना जैसी । प्रभु मूरति देखी तिन तैसी', पर देखने के लिये आंखें चाहिए, सो भी अंतःकरण में और प्रेमीजन से अंजित । यों जीभ की लपालप से मन की आंखों का काम नहीं निकलने का जबकि ऊपरी ही आंखों का काम निकलना असंभव है । इसी प्रकार वह सबसे पृथक रहने पर भी सब से मिला रहता है । निवृत्त लोगों के लिये वह किसी का कोई नहीं है । मानों कबीर साहब के द्वारा उसी ने कहा है कि, 'ना हम काहू के कोई न हमारा'। पर प्रवृत्ति मार्ग में सारा संसार उसी का है और वह भी सब का सब कुछ है। कभी २ ईसाई धर्मप्रचारक