पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३३२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३१० [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली को गुलामी करना है। इसे छोड़िए, यदि मानना हो तो कसा ही मानिए, कुछ ही मानिए, किसी प्रकार से मामिए पर सच्चाई के साथ। फिर देख लीजिए कि वह वास्तव में आपही के मंतव्य की अनुकूलता का निर्वाह करता है कि नहीं। यदि कोई हम से इस विषय में सम्मसि लिया चाहे तो साधारणतया तो हम यही कहेगे कि अपनी दशा के अनुसार अपने जी से आप ही पूछ देखिए । जैसा वह बतलावे सा मानने लगिए और वही मानना ठीक होगा। रही हमारी विशेष अनुमति, वह यह है कि अपने गृह, कुटुंब, जाति देश की गिरी हुई दशा सुधारने पर कटिबद्ध हूजिए । यहां के धन, बल, विद्या, मान मर्यादा को नष्ट से बचाने के लिए तन, मन, धन, बचन, कर्म से से अहर्निश जुटे रहिए। क्योंकि ईश्वर जगत् में व्याप्त है, इस से जगत के साथ उत्तमा- चरण करना ही ईश्वर के साथ सदध्यवहार करना है। जिसने संसार को सुखित करने का उद्योग किया वह ईश्वर को प्रसन्नता संपादन कर चुका । जब कि संसारिक पिता और राजा अपने संतान तथा प्रजा के हितकारकों को अपना हितू समझते हैं तो जग- त्पिता जगदीश्वर अपनी सृष्टि के शुभचिंतक को अपना प्रीतिपात्र क्यों न समझेंगे । पर सारा संसार बहत बड़ा है और इतने बड़े विश्व के साथ स्नेह संबंध रखना हमारे लिए अति कठिन है, इससे केवल अपने देश जाति की भलाई को जगत की भलाई स+झ के उसका उद्योग कर चलिए और उसमें ईश्वर को अपना सच्चा सामर्थ्यवान सुदृढ़ सहायक समझिए। फिर देखिए उसकी सहायता से आप क्तिने शीघ्र कैसी उत्तमता से कृतकार्य होते हैं और विघ्नकारणी बातें कैसे बात की बात में बतासा सी बिलाती हैं। बरंच अपने भाव के विरुद्ध आप की अनुकूलता संपादन करें तो बात है क्योंकि जिसे आप अपना सहायकारी मानेगे वह 'कर्तुमकर्तुमन्यथा कतु समर्थ' है। पर जब मानिए और स्नेहशास्त्र का यह वाक्य भी जानिए कि 'जहां तक हमारे किये होगा वहां तक अपने सहायक पर भार न डालेगे'। बस यही सब प्रकार की समुन्नति का सोपान है जिसका अवलंबन करने से अभीष्ट का प्राप्त करना सहज हो जायगा। नहीं तो कोरी बातें बनाया कीजिए, कभी कोई बात न बनेगी। अंतर्यामी परमेश्वर के साहाय्य की आशा निरी ऊपरी बातो से कदापि नही पूर्ण होने की, क्योकि 'हरि जैसे को तैसा' है। खं० ७, सं० ११ ( १५ जून ह० सं० ७)