पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली सो दूर रही ब्राह्मणों तक की स्त्रियां स्पर्श तक नहीं कर सकती, उनको ईसाई मुसलमानों के बीच में लाना कैसे उचित हो सकता है ! उन लड़ाका भाइयों ( मुद्दई मुद्दाअलेह ) को क्या कहें जिनको अपनी बात के हठ में धर्म जाने का भी डर न रहा! भला शालिग्रामजी कौन लाख दो लाख में आते हैं ? वा किसको निज स्वाम्य (जायदात) में से हो सकते हैं जिन को अदालत में मंगाए बिना तुम्हारी नाक कटी जाती थी। क्या यही आर्यों के कर्म होने चाहिए ? धिक !! इन्ही आपस के झगड़ों में देश बंटा- ढार हो गया, अब और भी न जाने क्या होता है । खैर, जज्ज साहब की आज्ञानुसार ठाकुरजी अदालत में आए, झगड़ालुओं की बात रह गई, परंतु इस अनर्थ का फल हम भारतवासियों के आगे आया। यह तो कब सम्भव था कि शास्त्र जिन को प्राण प्रतिष्ठा किये बिना भी पूजा के योग्य कहता है उनको प्रतिष्ठा के विरुद्ध कोई बात हो और देशानुरागी महोदयों के जी पर चोट न लगे। आखिर उसी कलकत्ता हाईकोर्ट के एक वकील "ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन" पत्र के संपादक महाशय से ( यद्यपि मूर्ति पूजन से इन्हें कोई संबंध नहीं है ) न सहा गया । इन्होंने इस वृत्तांत को छापा । इन्हीं के लेख की ( अथारिटी ) पर बंगाली पत्र के एडिटर श्रीयुत बाबू सुरेन्द्रीनाथ बनर्जी ने भी अपने पत्र में लिखा। इन महाशय के लेख में ब्राह्मो पब्लिक ओपीनियन की अपेक्षा मोरिस साहब पर कुछ अधिक आक्षेप था । यद्यपि टेलर साहिब ने एक बार हाईकोर्ट के एक जज पर जैसे कठोर शब्द लिखे थे उनके देखे मुरेद्रो बाबू के लेख में कुछ भी न था पर वे अंगरेज होने के कारण क्षमापन मांग के छूट गये थे । हाय, हमारे काले रंग की दुर्दशा ! कोई कैसा ही योग्य पुरुष क्यों न हो तो भी इस अभागी 'नेटिव' नाम के कारण कुछ जंचता ही नहीं। हमारे बाबू साहब का क्षमा मांगना नामंजूर हुआ और हाईकोर्ट की अवमानना का दोष लगा के दो महीने के लिये कारागार भेजे गये।. प्रिय पाठकगण ! विचार का स्थान है कि अपने धर्म की निंदा का हाल सुनके किस सहृदय का जी नही दुखता ? ऐसे अवसर पर मनुष्य जो न कर उठावै सोई थोड़ा है। फिर बाबू साहब ने कौन हत्या की थी जो ऐसे कठोर दंड के भागी हों। सुरेंद्रोनाथ कोई साधारण पुरुष नहीं हैं । आनरेरी मैजिस्ट्रेट और सिविल सर्विस के मेंबर रह चुके हैं। विद्या, बुद्धि और प्रतिष्ठा भी उनकी ऐसी देश भर में बहुत ही थोड़े लोगों की है • ऐसे देशानुरागी सुयोग्य व्यक्ति को ऐसी ऐसी बातों के लिये ऐसा दंड कर देने में केवल एक ही की नहीं वरञ्च आर्य मात्र की विडंबना है। क्या यह बात महा अनुचित न हुई ? निस्संदेह सबके जी पर इसका दुःख हुआ। तभी तो नगर नगर में त्राहि त्राहि मच रही है, ठोर ठौर इस विषय में सभा होती हैं । सुरेंद्रो बाबू के पास कारागृह में हमदर्दी की चिट्ठियां पर चिट्ठिया, तारों पर तार जा रहे हैं, एक से एक धनवान विद्वान् बिलला रहे हैं,पर क्या कीजिये 'बलीयसी केवल ईश्वरेच्छा"। भगवान् के कामों में किसी का वश नहीं है । होम करते हाथ जलना इसी को कहते हैं । कहाँ यह आशा थी कि ऐसा करने से पुनर्वार हमारे देवताओं की ऐसी अप्रतिष्ठा नहीं की गायगो, कहाँ से देशभक्ति का यह उलटा फल देखने में आया ।