पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३१८
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

प्रतापनारायण-ग्रंथावली हुई। वेवल नाम से हारे हैं विचारे। बाप ने किसी देवता का दास, प्रसादादि बना दिया है, सो भी जहाँ तक हो सकता है वहाँ तक बिषु भूषण को B. B. और देवदत्त को D. D. इत्यादि बना के अपने ढंग का कर लेते हैं। कहां तक कहिए, दिमाग में विलायती हवा यहां तक समाई है कि कठिन रोगों को शीघ्र आराम करने वाली थोड़े दाम की आजमाई हुई दवा तक नापसन्द, पर देश सुधारने का बीड़ा उठाए हुए हैं, सो भी किस रीति से, जाति पाति का भेद मिटा के, देवता पितरों की पूजा हटा के सना- सनाचार को रसातल पहुँचा के, पुरुषों का धर्म कर्म और स्त्रियों की लाज शर्म धूल में मिला के, प्रजा का स्वत्व हर के, राजकर्मचारियों को रुष्ट कर के, सचमुच किसी काम के न होने पर भी नामवरी पर मर के, भारत की आरत दशा गारत करेगे। क्यों नहीं कुल्हिया की ऐनक लगा के मट्टी के तेल की रोशनी में महीन अक्षरों की किताबें पढ़ते २ निगाह तेज हो गई है, इस से सूझती बहुत दूर की है ! और समुद्र पार जाते २ बुद्धि में कुछ २ हनोमान जी के स्वाभाविक लक्षण आ गए हैं, अस्मात् सोचते हैं तो वही सोचते हैं जिस के द्वारा आर्य देश के प्राचीन रग ढंग का लेश न रह जाय । जहाँ तक दृष्टि पहुंचे नई चाल ढाल वाली नई ही सृष्टि दिखलाई दे। मला उस दशा में उन्नति क्या धुल होगी? हाँ काले रंग वाले साहब लोग बढ़ जायेंगे। उसी को चाहे इंडिया का प्रोग्रेस कह लीजिए पर है वास्तव में सत्यानाश की जड़ । नितु यार लोग उसी के सोने में लगे हुए हैं । इसी से हम नहीं जानते कि बज्रमूर्ख के सिवा इन्हें किस नाम से पुकारें । इन से छोटे और दिहाती कुपड्ढों से बड़े हमारे वह भाई हैं जिन्हे विलायती हवा अभी नहीं लगी। काल की गति के देखे कुछ आर्यत्व की श्रद्धा बनी हुई है। नई बातों से चौंकते हैं, पुराने ढरे पर पथा शक्ति चले जाते हैं। पर आंखें खोल कर देखिए तो वह भी ऐसे ही हैं कि सारी रामायण सुन डाली पर यह न जाना कि राम राक्षस थे कि रावण राक्षस थे । रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत इत्यादि निसंदेह ऐसे ग्रंथ हैं कि उन मे हमें धार्मिक, सामाजिक, व्यवहारिक, राजनैतिक सभी प्रकार के उपदेश प्राप्त हो सकते हैं । उनमें से यदि हम दस पांच बातों का भी दृढ़ता. पूर्वक अनुसरण करें तो लोक मे सुख, सुयश एवं परलोक में सुगति के भागी हो सकते हैं और हमारे पूर्वजों ने इसी मनसा से इन के सुनने सुनाने की प्रथा चलाई थी कि जो लोग संस्कृत भली भांति नहीं समझते अथवा काम धंधों के मारे पुस्तकावलोकन का समय नहीं पाते वे कभी २ वा नित्य २ घंटे आध घंटे इन सदग्रंथों को सुना करेंगे तो कुछ न कुछ 'लोक लाहु परलोक निबाहू' के योग्य बने रहेंगे । पर आजकल देश के अभाग्य से इनके सुनने वाले यदि सुन नहीं डालने अर्थात् सुन के डाल नहीं देते तो भी इतना ही सुन लेते हैं कि आज के लड़के दशरथ थे, उन के बेटे राम लक्ष्मण भरत शत्रुध्न थे । रामचंद्र जी का ब्याह जनक जी की कन्या सीता जी से हुआ था। उन्हें दश शिर वाला रावण हर ले गया तब रामजी ने सुग्रीवादि बंदरों की सेना के साथ समुद्र में पुल बाँध के लंका पर चढ़ाई की और रावण को मार के जानकी छीन लाए ।