पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३४१

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बचमूर्ख ] ३१९ बस, बोलो सियावर रामचन्द्र की जय ! बसुदेव जी के पुत्र श्री कृष्णचन्द्र थे। उन्होंने लड़कपन में नंद बाबा के यहां पल के गौएं चराई थी। गोपियों से बिहार किया था। गोबर्द्धन पर्वत उठाया था। फिर मथुरा में आ के मामा कंस को मार के उसके पिता उग्रसेन को राज्य दिया था। फिर जरासंध से भाग के द्वारिका बसाई थी। सोलह हजार एक सौ आठ ब्याह किये थे। बहुत से राक्षसों को मारा था। अपनी बुआ के सड़के युधिष्ठिरादि को उनके चचेरे भाई दुर्योधनादि से उबारा था। फिर एक बहेलिए के बाण से परम धाम को चले गये । बस, बोलो नंदनंदन बिहारी की जय ! जो इनसे भी बड़े श्रोता हैं, जिन्होंने कई बार कथा सुनी है, वे इतनी जानकारी पर मरे धरे हैं वा हिन्दू धर्म की नाक बचाए हैं अथवा बैकुंठ में घर बनाए बैठे हैं कि 'हंसे राम सीता तन हेरी' यों कहे ? लछिमन केती के काहे न हेरेनि ? 'जो सत संकर करें सहाई । तर हतौं रघुवीर दुहाई' लछिमन जी यों कहेनि तो कैसे कहेनि ? अक्रूर के बाप का का नांव रहै ? राधा जी ब्याही केहेका रहैं ? हाय री बुद्धि ! क्या वालमीकि और व्यासादि लोकोरकारी महात्मानों ने वर्षों परिश्रम कर के यह दिव्य ग्रंथ केवल कहानी की भांति सुन भागने के और आपस में बैठ के कनपटिहाव करने के लिए बनाए थे ? यदि यों ही हैं तो अलिफलैला के किस्से क्या बुरे हैं जिन से अवकाश का समय भी कट जाता है और किसी धर्म के किसी मान्य पात्र की हंसी भी नहीं होती ? किन्तु हमारे बक्ता श्रोताओं ने हमारे परम देव कृष्णादि को यह प्रतिष्ठा बढ़ा रक्खी है कि मिशन स्कूल के लोडे तक उनके चरित्रों पर हंस देने का साहस कर बैठते हैं और भगतजी को जवाब नहीं सूझता। वही यदि भगवान रामचन्द्र जी की गुरुभक्ति, महाराज दशरथ जी की धामिकता, लक्ष्मण और भरत जी की भ्रातृभक्ति, मीता जी की पतिभक्ति, कौशल्या जी का धर्य, श्रीकृष्ण भगवान की कार्यकुशलता, श्रीगोपी जन को प्रेमदृढ़ता, यशोदा मैया का वात्सल्यभाव, कर्ण का दानबीरत्व, भीष्मपितामह का धीरत्व, बशिष्ठ विश्वामित्रादि के सदुपदेश, रावण कंसादि की उइंडता इत्यादि पर ध्यान देते जो उक्त ग्रंथों में पूर्ण रूप से दर्शाई गई हैं और भलाई बुराई को पराकाष्ठा दिखलाने को अद्वितोय दिव्य दर्पण के समान दिव्यमान हैं, उन्हें मन की आंखों से केवल देख भी लेते तो क्या हमारी भीतरी तथा बाहरी दशा ऐसी ही बनी रहती जैसी आज दिन देखने में आती है ? कदापि नहीं ! मनु भगवान की आशा है कि-"श्रुत्वा धर्मविजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम् । श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात् ॥" और इस में कोई भी संदेह नहीं है कि रामायण भागवत् तथा भारत से बढ़ के सुनने योग्य पदार्थ स्थव वास्तविक सन्मार्ग प्रदर्शक दिव्यदीपो न भूतो न भविष्यति । पर कोई सुने तब न ! सुनने वाले तो केवल कहानी सुनते हैं ! हां, गीत और योगवासिष्ठादि सुनने वाले भगवतादि के श्रोताओं की अपेक्षा कुछ अधिक मनोयोग से सुनते हैं । पर सुन के समझते क्या है ? अहम्ब्रह्मास्मि ! वाह ! घंटे भर खाने को न मिले तो आंखें बैठ जायं, एक पैसे का नुकसान होता हो तो सारी गंगा पर जायं, कानिस्टिबिल की डांट में मुंह से तमाखू गिर