पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३२६
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१२६ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली खैर, तो कान फटफटा के सुनो ! बगले की तरह ध्यान लगा के सुनो समझो। कचटियावलिन जो है सो राम आसरे ते जा समय के बिखै रामलीला का आरंभ होता है गोविंदाय नमोनमः वा समय के बिखै जो है सो गांवन गांवन नगरन नगरन के बिखै आनंद करि करि के जै औ छै का आगमन होत है जो है सो गोविंदाय नमो नमः। कहो कैसे ? तो जा समै के बिखै रामचंद्र कै सवारी निकरति हैं, गोविंदाय नमो नमः, वा समय के बिखै, जहां कौन्यो रामादल के वीर अथवा कोन्यो तमासगीर के मुख ते जो है सो यतरा निकरि गा गोविंदाय नमो नमः कि बोलो राजा रामचंद्र की जै, अथवा- बोलैगा सो निहाल होगा, बोल दे रजा आ आ आ आ रा आ म चन्द्र की ईई जै! हुई चारिउ कती जै जै जै जै के धुनी छाय जाति है, गोविंदा०, औ जब रावण के सवारी निकरति है, गोवि०, वा समै के बिखै जहां कोउ राच्छस जो है सो कहि देत है कि बोल रावन जोधा कि ज! तो कोऊ जै तो नाही कहत, गोविंदा०, १ छै छै के धुन छाय जाति है, गोविंदा । औ राच्छस नाहिंउ ब्याल तहें देखवैया जे हैं ते अपने छै छै करन लागत हैं, गोविंदा । या प्रकार सो कुवार के महीना मा जो है सो जै के साथ छ को जन्म होत भयो गोवि० । अब समझौ ! शब्द जो है सो सदा से अनादि है, गोवि. 4 यह बात जो है सो हम ही ऐस पंडित जानित है. गोवि०, जिनका बरसन व्याकरण रटत २ लाग हैं, गोवि०, ओ जीवका तथा प्रतिष्ठा हिंदुनै के घर ते हैं जो है सो, ओ जनम भर कर्थ बांचत बीता है, गोवि०, वै हिंदी वाले का सहर जो है सो कबो न होत भयो, गोवि०। यह तो गुरू सच कहत हौ ! और ऊपर से तुर्रा यह कि यही लोक परलोक के अगुवा है ! यही हिंदुओं भर के गुरू हैं। पर जाने दीजिए मतलब वाली कहिए । तुम्हारी पागलों की सी बकवाद में मतलव खस्त हो जाता है । हैं ! तो हम पागल ठहरे ! बस अब न बतलावें, जा! नहीं महराज ! कृपानिधान ! दयासिंधु ! दीनबंधु ! दास से तकसीर हुई। क्षमा कीजिए । इतना समझा दीजिए कि शब्द जितने हैं सब अनादि हैं इस न्याय से जै और ॐ अनादि है। इसके सिवा बरसों से लाहौर वाली देव समाज की सारी पुस्तको पर देव धर्म की जे, सकल पाप की छै छापा जाता है। फिर जै औ छै की उत्पत्ति कुंवार से क्यों कर मान लू? हमारे कहने से मान ले, नहीं तो नास्तिक हो जायगा और श्रद्धापूर्वक सुनता ही तो सुन । अवे ले शब्द ही अनादि नहीं है, सारा संसार अनादि है । इसे किसी ने बनाया बुनाया नहीं है, यों ही लोग ईश्वर का नाम रख लेते हैं। पर आज कल के शिक्षितों का अधिकांश मत यही है कि सृष्टिकर्ता की जरूरत नहीं। बस फिर जो कुछ है सब अनादि और अनंत है। पर बात जिन दिनों बहुत फल जाती है वह उत्पन्न कहलाती है और जिसे बहुत थोड़े लोग जानते मानते हैं वह नष्ट वा नष्टप्राय समझी जाती है । इस रीति से रामलीला के साथ 'है' की उत्पत्ति और कार्तिकी पौर्णमासी