पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३५२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[प्रतापनारायण-ग्रंथावली 'अन्याय का विचार भूल जाता है, केवल काम निकालने की सूझती है। इन सब बातों पर ध्यान देकर बतलाइए तो कि वर्तमान काल की व्यवस्था में यह क्यों कर सर्वसाधा- रण लोगों में आजकल का साधन संकोच न था। इससे अपने निर्धन स्वदेशियों की शक्ति सहारा पहुँचाने में लोगों को रुचि थी। पर वह जमाना अब नही है । सारी चीजें महंगी हैं और धन तथा व्यापार दिन २ घटता है। इससे अनेक लोग 'क्षीणा नरा निष्क- रुणा भवंति' वाले वाक्य को सार्थक कर रहे हैं। ऐसे समय मे पुलिस ही कहां तक फंक २ पांव धर सकती है। हां नए नौकरों को कम से कम दस २० मासिक मिला करे फिर तरक्की चाहे बीस बरस तक न हो तब दस ही पांच वर्ष मे देख लजिए कि इन्ही वर्तमान सेवकों में से कितने लोग सजनता का परिचय देते हैं और कितने नए भले मानस भरती हो के इस विभाग का कलंक भिटाने को चेष्टा करते हैं तथा राजा प्रजा दोनों की प्रसन्नता के पात्र बनते हैं । नहीं तो विचारशक्ति सदा यही कहा करेगी कि पुलिस की निंदा क्यों की जाती है ? खं० ८, सं० ४-५ ( नवंबर-दिसंबर, ह० सं० ७) विश्वास यूरोप की विद्या सभ्यता और सिद्धांतों को जन्म लिए अभी बहुत दिन नही हुए तथा आज भी इन बातों का कोई अंग पूर्णता तक नहीं पहुंच चुका । इस से जो लोग केवल उन्हीं का आश्रय ले बैठने हैं, भारतीय फिलासफी की ओर ध्यान नहीं देते, वे बहुधा मूल ही में पड़े रह जाते हैं। इस बात का प्रमाण जिधर देखिए उधर मिल सकता है। नित्य के व्यवहारों में, स्नान भोजन वस्त्र धारणादि एवं स्वास्थ्यरक्षार्थ औषध इत्यादि छोटे २ विषयों तक में यदि आर्य रीति का यथोचित अवलम्बन कर देखिए तो विदित हो जायगा कि पश्चिमीय बातों की अपेक्षा कितने स्वल्प व्यय में, कितना अधिक और दृढ़ स्थायी गुण देखने में आता है कि यदि एतद्देशीय बातों से स्वाभाविकीय घृणा हो अथवा अभ्यास ने जाति स्वभाव के अंश तक पहुँच के एवं मन को पूर्ण रूप से सात समुद्र पार के रंग ढंग का बना डाला हो तो तो बात ही न्यारी है नहीं भारत के जलवायु के साथ जितनी स्वाभाविकीय अनुकूलता हमारे ऋषियों के बतलाए हुए सांसारिक अथच परमार्थिक नियमों की है उतनी विदेशीय नियमों की कमी हो नहीं सकती । इसी मूल पर हमारी सी तबीयत वालों ने दृढ़ निश्चय कर लिया है, और यदि कोई इस निश्चय के विरुद्ध अपनी विज्ञता सिट करना चाहे तो भली भांति पुष्ट प्रमाणों से प्रमाणित कर सकते हैं कि हमारे लोक परलोक संबंधी सुख सुविधा सौभाग्य केवल प्राचीन लोगों के द्वारा कथित रीति नीति पर निर्भर है। उन्हीं का अनुकरण करके हम अपना प्रकृत मंगल साधन कर सकते हैं और जिस विषय के जितने