पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३६९

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चाहिए अथवा स्वयं विचार करना उचित है कि छल कोई बुरी बात नहीं है । क्योंकि उस का लक्षण यह है कि अपने आन्तरिक भाव को पूर्ण रूप से छिपाना, दूसरे की दृष्टि में कुछ का कुछ बतलाना और येन केन प्रकारेण अपना काम बना लेना, दूसरा चाहे भट्ठी में जाय चाहे भाड़ में । सच पूष्ठो तो यह काम ऐसे वैसों से हो भी नहीं सकता, उन्ही से हो सकता है जो चतुरता, व्यवहारकुशलता, अनुभवशीलता और कार्यदक्षता में पूरे पक्के हों। फिर भला ऐसे बुद्धिमानों के करने योग्य काम को बुरा समझना कोन सी समझदारी हैं । यदि मुनियों ने छल कपट को जित किया है तो अवतारों ने उसे आश्रय दिया है और यह मानने में किसी आस्तिक को भी आपत्ति न होगी कि ऋषियों की अपेक्षा अवतार श्रेष्ठतर होते हैं। सो अवतारों का नाम ही मायावपुधारी होता है, जिस का पर्याय 'छल का पुतला' है । अर्थात् वास्तव मे निराकार निर्विकार पर जगत के दिखाने को और अपने भक्तों को सुखित करने तथा अपनी सृष्टि के दुखदायकों के भार मिटाने को कभी मछली बन जाते हैं, कभी कछुआ के रूप में दृष्टि आते हैं, कभी बराह रूप की राह से जादूगर का काम चलाते हैं, यहां तक कि सर्वोपरि पोडस कला विशिष्ट पूर्णावतार में छहों ऋतु बारहों मास श्री गोपीजन के साथ छल ही करने में समय बिताते हैं और 'छल के रूप कपट की मूरति मिथ्या बाद जहाज । आउ मेरे झूठन के सिर- ताज !' कहलाने ही में गगन रहते हैं । अब बिचारने का स्थल है कि जिसे ऐसे परम पुरुषोत्तम आदर दें उस का निरादर करना कादरपन है कि नही ? यदि इन बातों को पुराने अनसिविलाइज्ड हिन्दुओं की कहानियां समझिए तो कोई प्रामाणिक इतिहास के प्रमाण से बतला दीजिए कि किस देश के, किस जाति के बड़े बड़ों ने इसका अवलम्बन नहीं किया। बड़े २ राज्य बहुधा इसी के प्रभाव से स्थापित हुए हैं फिर इसे बुरा सम- झना कहां की भलाई है सच पूछो तो निर्बलों का बल यही है। जहां बल से काम न चले वहां इस के द्वारा सो विश्वा चली जाती है । बलवानों को भी इस का आश्रय लेने से अपना पूर्ण बल नहीं व्यय करना पड़ता। इसी से नीति शास्त्र के आचार्यों ने इसे राजकीय कर्तव्यों में सर्वोपरि माना है । जब विपक्षी प्रबल हो और साम अर्थात् मित्रता और दान अर्थात् धन तथा दंड अर्थात् मारधाड़ से वश में न आवै तब भेद अर्थात् उस के गृह कुटुम्ब इष्ट मित्रादि में तोड़ फोड़, जोड़ तोड़ लगाने अथवा छल का पूर्ण प्रयोग करने से कार्य सिद्धि की सम्भावना हो जाती है । फिर हम तुम ऐसे छोटे मोटे गृहस्थों के पक्ष में छल की निन्दा करना मानों अपने तई प्राचीन एवं अर्वाचीन सम्राटों बरंच ईश्व- रावतारों से श्रेष्ट समझना है। यों तकशास्त्र में बड़ी सामर्थ्य है, अच्छी से अच्छी वस्तु को बुरा और बुरे से बुरे पदार्थ को अच्छा सिद्ध कर देने में व्यय केवल बातों ही का और श्रम अकेली जीभ ही को होता है। किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से प्रत्यक्ष बाद का विचार रख के विचारिए तो अवगत हो जायगा कि छल में यदि केवल इतनी बुराई है कि धर्म- शास्त्र की अवज्ञा होती है तो भलाई भी प्रत्यक्ष तथा इतनी ही है कि इसके द्वारा निर्धन दूसरों के धन का, निबल दूसरों के बल का, अविद्य दूसरों को विद्या का, अप्रति- ष्ठित दूसरों की प्रतिष्ठा का भोग कर सकते हैं। यदि इतने पर भी कोई हठी इसका