पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३७२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३५० [प्रतापनारायण-ग्रंथावली को श्रीमन्महषिकुमार' अथवा आर्यमान्य' इत्यादि ऐसे विशेषण अवश्य लिखा करें जिन से उन्हें आत्मगौरव का स्मरण समय २ पर होता रहे। ऐसा करने से वे विशेष रूप से प्रीत तो होहीगे ऊपर से संभव है कि सदाचार में अधिक उत्साहित तथा अयुक्त कार्यों को प्रकट रीति से करते समय लबित भी होते रहेंगे। क्योंकि नाम का ख्याल रखना भारत के जलवायु का स्वाभाविक गुण है और यह गुण अभी देशानुकूल बना भी हुआ है । क्षत्रिय पूर्वजों ने इसी मनसा से नाम के अंत मे सिंह शन्द रखने तथा स्वजाति मात्र को राजपुत्र वा महाराजकुमार कहने लिखने की प्रथा चलाई थी और एतद्वारा सहस्त्र दो सहस्त्र वर्ष अवश्य जाति मात्र को जातीय कर्तव्य का विचार रहा होगा। किंतु अब यह चाल पुरानी हो गई इससे उतना प्रभाव नहीं रहा । नहीं तो आज बच्चा सिंह, पुहुप सिंह, भग्गू सिंह आदि नाम न रखे जाते । परंतु हम जो रीति बतलाते हैं वह यद्यपि निर्मूल नहीं है, ब्राह्मण मात्र किसी न किसी जगन्मान्य महर्षि का वंश है, यद्यपि समय के प्रभाव से अपने को भूल सा गए हैं, यथापि इस नवीन प्रथा के द्वारा आशा है कि वे वर्तमान भूल में पड़े रहना पसंद न करेगे। जो बात नई निकलती है और लोगों को प्रिय जंचती है वह कुछ काल तक अवश्यमेव अपना प्रभाव जमाये रहती है । इस न्याय से यह चाल ब्राह्मणो को प्रोत्साहित करने के लिये हमारी समझ में उत्तम है और जहां यह प्रसन्न हो के कुछ सजग हुए वहाँ क्षत्रिय वैश्यादि को जगाये बिना इनका जी आप ही न मानेगा और यही देश के सुधार की पहिली सीढ़ी है । क्या हमारे मित्रगण भी हमे योगदान करेंगे? कोई परिश्रम नहीं है, धन का काम नहीं है, झूठ नहीं है, खुशामद नहीं है, फिर क्या हानि है यदि ब्राह्मणों को पत्र लिखते समय 'श्रीमन्महर्षि कुमार' अथवा और कोई ऐसे ही शब्द काम में लाया करें? अभी बहुत दिन नहीं हुए कि चिट्ठियों भर मे गंगाजल निर्मल, पवनपवित्र इत्यादि विशेषण लिखे जाते थे पर अब वह चाल जाती रही। अंगरेजीपन ने सब काटकुट के केवल पंडिन', सो भी अकेली पं०, Pandit, Pt. रहने दी है । यद्यपि यह शब्द भी साधारण नहीं है किंतु समझने का श्रम करने वाले थोड़े हैं। बहुतेरे इसके साथ ही आठ २ आने पर दुर्गापाठ करने वालों अथवा अक्षरारंभ के स्थान पर बिसमिल्लाह का सबक लेने बालों की ओर मन ले जाते हैं । इससे अब कुछ अधिक विशेषणों की आवश्यकता है और यदि हमारे महवर्तीगण भी रुचिकर समझें तो 'महर्षिकुमार, 'आर्यमान्य', 'पूज्यवर' इत्यादि विशेषण उत्तम हैं। हाँ, जिन का मन बचन कर्म खुल्लमखुल्ला इस योग्य न जंचे उन्हें कुछ काल तक न लिखिए । पर इसमे सन्देह नहीं है कि इस जाति में ऐसे कुलकलंक बहुत न मिलेंगे। अतः जिनमें किसी प्रकार की श्रेष्ठता हो उन्हें स्तुति के द्वारा संप्रीत करके कर्तव्य में संलग्न रखना और उन के निंदकों का साहस न बढ़ने देना बड़ी भारी दूरदर्शिता है। खं० ८, सं० ८ ( मार्च, ह० सं०८)