पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३७५

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समस की बलिहारी] ३५३ मानस किया है। इसी से कहते हैं समझ को बलिहारी है ! आप लिखते हैं- 'हम नहीं जानते इस पत्र का नाम 'ब्राह्मण' किस अभिप्राय से रखा गया है। आठ वर्ष में एक बच्चा भी जान सकता था पर खेद है आप की जानकारी पर कि इतने दिनों में इतना भी न जाना! खैर, अब जान रखिए कि इसका सम्पादक 'ब्राह्मण' है और उसका कविता सम्बन्धी नाम ( तखल्लुस ) भी यही ( बरहमन ) है, इससे नाम रखते समय ध्यर्थ का सोच विचार न करके इसी नाम से काम लेना उचित समझा गया था । जो लोग ऊटपटांग लम्बा चौड़ा शेखी से भरा हुआ नाम बहुत सोच साच के रख लेते हैं पर कार्यवाही कुछ भी नहीं दिखा सकते उनका ढंग इस पत्र के संपादक को नापसंद है । हम यदि अपने पत्र का नाम आर्यावर्त या देशहितैषी इत्यादि रखते तो कभी एक सम्प्रदाय का पक्ष न लेते बरंच समस्त देश के सच्चे हक पर ध्यान रखते। और सुनिए, हिन्दू जाति का समयानुकूल शुभचिंतन सदा से इसी नाम पर निर्भर रहा है । फिर जिस पत्र का बही एक मात्र उद्देश्य हो उसके लिए इसके अतिरिक्त और कोन नाम युक्तियुक्त हो सकता था ? हां इस नाम के साथ बेद और तदनुकल ग्रन्थों का भी अवश्य सम्बन्ध है। पर इस सम्बन्ध से यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि केवल मुख से वेद २ चिल्लाना पर तदनुकल उपदेश के समय 'बाबा वाक्यं प्रमाणं' का आश्रय लिया जाय । जो लोग वेद का तत्व जानते हैं वह हमारे मूल मंत्र 'प्रेम एव परोधर्मः' को कदापि बेद के विपरीत नहीं कह सकते। क्योंकि प्रेम के बिना बेद ही नहीं, परमेश्वर तक की महिमा नहीं स्थिर रह सकती। पर उन समझदारों के लिए हमारे पास कोई औषधि नहीं है जो वे वल दयानन्दी भाष्य ही को वेद समझ बैठे हैं । इसी प्रकार जिनके शिर में खसखस के दाने भर भी समझ होगी वे उपर्युक्त नामगुणविशिष्ट ब्राह्मण नामक पुरुष को नकली नहीं कह सकते । कहना कैसा, ऐसा विचार करना भी आर्यबंशज की समझ में महापाप है। पर जिनका शरीर ब्राह्मण जाति के माता पिता से नहीं उत्पन्न हुआ और इसी स्वाभाविक गुण के अनुसार अपने बाप दादों तथा सजातियों की ममता का लेश नहीं है प्रत्युत् “ब्राह्मण" शब्द ही जिन की समझ में पोप का पर्याय है, ब्राह्मण जाति की रीति नीति एवं सदाचार सद्ग्रन्थादि मात्र जिनकी समझ में दोषास्पद जंचते हैं, वे नकली ब्राह्मण बने तो कलिकाल में बन सकते हैं। किन्तु हमारी समझ में तो उन्हें इस नाम ही से क्या क्या काम है जो पवित्र ब्रह्मकुल को अपने कर्तव्यों से नकलीपन का कलंक लगा रहे हैं । नकली होते हैं विजातीय नये मतों को मानने वाले न कि ब्राह्मण जिनका जातीय धर्म एवं गौरव सदा से चला आया है और असंख्य विघ्नों को कुचलता हुआ सदा तक चला ही जायगा। भैया रे, बांकीपुर वाले 'ब्राह्मण' के उपदेश समझने को समझ चाहिए, नहीं तो आज पुराण हैं तो कल बेद तक सभी जटल काफिए जंचने लगेंगे । क्योंकि इस 'ब्राह्मण' का मूल मंत्र ही जिन्हें नहीं रुचता उनसे यह आशा कौन कर सकता है कि अपने देश जाति को कोई भी बात श्रद्धेय रहेगी। आप ने जो 'कलो- विप्रा भविष्यति' श्लोक लिखा है उससे पुराणों की भविष्यत् वाणी प्रति पद प्रत्यक्ष है, २३