पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१६
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[प्रतापनारायण-ग्रंथावली वही बाबा आदम के आगे की बातें लिये बैठे रहो "मेरे बाप ने घी खाया था न मानो मेरा हाथ संघ लेव" । सो तुम्हारे हाथ में रहा क्या है ? वही लँखुली के तीन पात ! सो भी जो यही लच्छन रहे तो कुछ दिन में देखना कि घर के धान पयार में मिल गये । फिर वही पुरानी शेवी निबुआ लोन लगा के चाटना, सो उससे होना क्या है ? मरने पर चाहे भले ही वैकुण्ठ पाओ यहां तो वही कौड़ी के तीन २ बने रहोगे। क्योंकि तुम्हारा तो सिद्धान्त ही यह ठहरा कि "दुनिया में हाथ पाव हिलाना नहीं अच्छा । मर जाना पर उठकर कहीं जाना नहीं अच्छा ।" वाह जी, तुम्हारे मुंह में लगाम ही नहीं है, देखते नहीं हो बंगालियों ने विद्या की कैसी उन्नति की है ? बंबई बालों ने थोड़े दिन में कारीगरी को कसा बढ़ाया है ? क्या यह बातें बिना हाथ ही पांव हिलाये हो गई हैं ? ह ह ह ह ! “पठानों ने गांव जीता बेहनों ने दाढ़ी फटकारी" भला यह तो बताओ कि पश्चिमोत्तर देशियों ने क्या काट के कूड़ा किया ? इनसे तो इतना भी न हुआ उन सच्चे देश भक्तों की कुछ सहायता करके उत्साह ही बढ़ाते । हो जबानी जमा खर्च में पक्के हैं । आपस के झगड़ों में बीर हैं । जहां किसी महात्मा ने कोई देश के हित की नई बात निकाली, जो तो आप कुछ उसे न समझे तो बस झट उसे नास्तिक किरिस्तान या दयानंदी का खिताब दे दिया। और जो कहीं जी में आ गया कि नहीं, अच्छा कहता है, तो कुछ दिन तो ऐसा सत्त सढ़ा कि कोई जाने कि अभी धरती उलटाए देते हैं, अभी सतयुग बुलाते हैं, आज सब दुःख दरिद्र हरे लेते हैं, पीछे से कुछ नहीं, फिश् ! हाथ पर हाथ धर के बैठ रहे। करम में लिखा है सो आप हो रहेगा । सो करम में यह लिखा है, बल, बुद्धि, विद्या, घन, धर्म सबको तिलांजुली दे के कोरे संठ बन बैठो, झूरे झन्नाया करो और होना क्या है ? अपने मंह मिया मिठू बनने में कुछ लगता है ? कहा करो कि हम पंडितजी हैं, हम महराज साहब हैं, हम लाला लोग हैं, हम यह हैं, हम वह हैं । होंगे अपने चेलों के लिये, अपने यजमानों के लिये, चुटकी बजाने वाले खुशामदी मुफ्तखोरों के लिये, रंलियों के लिये, भंड़ओं के लिये जो हो सो बने रहो पर भारत भूमि के लिये तो तुम्हारा होना न होना बराबर है। यदि अने गने तीन जने हुए भी तो होता क्या है, अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है ? उनकी सुनता कौन है, उनका सहायक कौन होता है ? सिर पीटा करें, यार लोग अपनी बनगली चाल छोड़ते थोड़ी हैं। यहां तो समझ लिया है कि ( मिल जाय हिन्द खाक में हम काहिलों को क्या ? ऐ मोरे फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा )। फिर क्या किया जाय ! जितना हो सकता है उतना करते ही हैं। बातें करते हो और करते धरते तो कुछ भी नहीं । जितना कर सकते हो उतना करते होते तो क्यों घर फूंक तमाशा देखते ! देश दिन २ दीन दशा को पहुंचता जाता है। क्या सझता नहीं कि बाप दादे कसे बलवान होते थे कि उनमें साठा सो पाठा की कहावत प्रसिद्ध थी और तुम बीसा सो खीसा हो जाते हो ! इसमें क्या करें, यह युग का प्रभाव है । अभी तो वह दिन आने वाले हैं जब बित्ता २ भर के आदमी होंगे । जो यही समझ बनी रही तो बित्ता २ भर क्या है, अंगुल २ भर के होने लगेंगे । अरे भाई,