पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३८०

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भगवत्कृपा यों तो संसार में सबके ऊपर सदा भगत्कृपा अनवच्छिन्न रूप से बनी ही रहती है, हमारा जन्म ग्रहण करना, हृष्ट पुष्टांग होकर चलना फिरना, अन्न वस्त्रादि के द्वारा उपभोग एवं रक्षा पाना, जगत्कौतुक देख २ कर प्रसन्नता अथच शिक्षा का लाभ करना इत्यादि भगवान की दया ही के खेल हैं। नहीं तो यदि सचमुच न्याय किया जाय जो हम लोग क्षण भर बीने के योग्य नहीं हैं, उपकार के पात्र तो कहां से हो सकते हैं। जान बूझ कर अंतःकरण का निरादर करके जितने अधिक दंड दिया जाय सब थोड़ा है। किन्तु उस के पलटे में हमें एक से एक उत्तमोत्तम पदार्थ प्राप्त होते रहते हैं। यह निर्ग भगत्कृपा नहीं तो क्या है ? पर इस प्रकार की कृपा साधारण तया नित्यैव देखने में आया करती है इस से हम लोग बहुधा ध्यान नहीं देते । ध्यान देना कैसा बरंच कभी २ अपनी करतूत का फल समझ के घमंड में आ जाते हैं । हाँ, जब किसी व्यक्ति विशेष का किसी कारण के बिना किसी प्रकार का उपकार विशेष होते हुए देखते हैं तब यदि हमारे हृदय से आस्तिकता के साथ कुछ भी जान पहिचान होती हैं तो भगवान की दया का बोध करते हैं। जिन्होने हठपूर्वक नास्तैिक्य का दृढ़ रूप से आश्रय ले रक्खा उन को समझ में तो ईश्वर का अस्तित्व ही असंभव है उस की कृपा कहाँ रहती है अथवा जिन्होंने ईश्वर को केवल निज कल्पित नियमों का बशवर्ती मान के अन्य मतावलंबियों को ईश्वर से नितांत बहिर्मुख समझ लिया है उन की भी बात न्यारी है। जहाँ तक हो सकेगा प्रकृत वस्तु के विपरीत बुद्धि दौड़ावैगे और कही कुछ भी पता ठिकाना न पावैगे तो कह देंगे कि कुछ होगा, समझ में नहीं आता। पर ऐसा होना असंभव है और मानने वाले भ्रम में पड़ गए हैं अथवा छल करते हैं। बस इन्ही दोनों प्रकार वालों के अंतर्गत एक समुदाय ऐसा भी है जो समझता है कि जैसा कुछ हमारे समझाने वालों ने समझा दिया है और हम ने समझ लिया वही सारे संसार का निचोड़ है। उस के अतिरिक्त विरुद्ध कभी कहीं भी कुछ भी न भूतो न भविष्यति । पर हां, इन तीनों को छोड़ के और जितने समझदार हैं, जिन की संख्या सभों से अधिक है और उचित रीति से काम में लावै तो सामर्थ्य भी सब से अधिक है, वे सब जब कोई विलक्षण घटना देखते सुनते हैं तब सर्वेश्वर शक्तिमान की लीला का प्राकट्य मान लेते हैं । यदि उसका कारण अवगत हो गया तो कारण को भी लीला ही का एक अंग जानते हैं और इसी भांति जब किसी का कोई इष्ट विशेष साधित होने का वृत्तांन सुनते हैं तब मन और बचन से कहते हैं कि भगवान ने उस पर दया की है। गीतगोविदकार जयदेव स्वामी के हाथ पांव कट जाने पर फिर से हो जाना, मीरा महारानी का विषपान करने पर भी जीवित रहना इत्यादि तकियों की समझ में मिथ्या कथानक है पर यदि मिथ्यात्व सिवन हो सके तो भगवत्कृपा के सिवा क्या कहिएगा?