पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३८२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३५८ [प्रतापनारायण-पावती वितकं छोड़ के विश्वास के साथ उसी के हो जाए। फिर बाप ही देख लीजिएगा कि सारे मनोरयों की पूर्ति एवं सभी प्रकार के अभाव का निराकरण केवल उसी की कृपा से होता है अथवा नहीं । यों मन के स्नेह का काम बचन के द्वारा निकालना अभीष्ट हो तो त्रिकाल में असंभव है। जो कार्य जिस रीति से होता है वह उसी रीति का अब- लम्बन करने से होगा। वह रीति सीखने समझने कही नहीं जाना, केवल अपने चित्त को उस का बाधित बना लीजिए फिर उसका चाहे जैसा रूप गुण स्वभाव मान के उस के कोई बन जाइए और अवकाश के समय नित्य उस के सामने अपने मनोरथ प्रकाश करते रहिए । नित्य कहते रहिए--'तुम हमारे हो हम तुम्हारे हैं। जिन सांसारिक बस्तुओं के लिए मन को हाथ से खो देते हो, कुछ भी विचार न कर के उन्हीं की प्राप्ति के स्मरण में मग्न हो जाते हो, वैसे ही उस के लिए सतृष्ण हो जाओ तो फिर बस उसकी कृपा के अधिकारी हो जाओगे और जैसी घटनाओं को आज दूसरों की झूठी कहानियां समझते हो वैसी ही बरंच उन से अधिक को अपने ऊपर बीती हुई बातें सम- झने लगोगे । क्योंकि दयामय परम ईश की महान शक्ति का कभी ह्रास नहीं होता, वह अपने भक्तों के लिए आज भी वही हैं जो ध्रुव प्रह्लादादि के समय में थे। कमी केवल हमारी भक्ति में है कि उन्हें नाशमान जगत के पदार्थों के बराबर भी प्यार नहीं करते बरंच नाना भांति के तर्क उठा के उनके कामों को झठलाने और दूसरों का मन उन की ओर से फिराने मे सयत्न रहते हैं। इन लक्षणों से उन की दया का लाभ करना तो कैसा उस का भेद समझना भी संभव नहीं है । हमारी प्रवृत्ति स्वभावतः सर्वभावेन उनके विपरीत हो गई है। इस दशा मे केवल यही एक उपाय है कि हम उन्हें याद करते रहें तो वह हम पर दया करते रहेंगे। क्योंकि जैसे हमारी और सब बातें उलटी हैं बैसे ही हमारा यह काम भी उलटा ही होना सोहेगा। दया शब्द को उलटाइए तो याद का शब्द बन जाता है। इसी बनाव से उन्हें रिझाइए तो वे अवश्य इस विचार से रीझ जायंगे कि अपनी उलटी चाल का निर्वाह करने मे यह पक्का है। और कुछ जाने चाहे न जाने सो सच भी है। जिनका भेद किसी के जानने का विषय हई नही उस को हम ही क्या जानेगे और कितना जानेंगे ? अस्मात् जानने के लिए यत्न करना व्यर्थ अपनी बुद्धि को थकाना और समय बिताना है। केवल इतना जान लेना बहुत है कि यह सब कुछ कर सकते हैं और सब से बड़े हैं तथा बड़ों की सभी बातें बड़ी होती हैं इससे उन की दया भी बहुत बड़ी है । विशेषतः हमारे पक्ष में यह बहुत बड़ी दया है कि वे अपनी ओर हमारा मन खीच लें फिर बस हम पूरे कृपापात्र हो जायंगे। यह यद्यपि उन्ही के हाथ हैं पर यदि हम उन से नित्य इस विषय की छेड़ बनाए रहें, उन्हें सर्वब्यापी समझ के जहां कहीं उन की चर्चा सुने, जहां कोई उनका चिह्न देखें वहां उनके स्मरण में कुछ काल मग्न हो के दया जाचमा करते रहें तो कोई संशय नहीं है कि वे हम पर दया करेंगे। खं०८, सं० १० ( मई, ह० सं०८)