पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३८६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३६२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावलो लोग समझेंगे कि यह ऐसे गुरूघंटाल के पास बैठने वाला है जिसके आगे किसी की कलई खुले बिना रहती नहीं । अथवा ऐमे सुशील का सुहबती है जो अपने साथ वालों के कपट जाल को जान बूझ के भी उपेक्षा कर जाता है। इन दोनों रीतियों से उन मित्र जी को तो अच्छा ही है। किंतु इतना हमारे लिए भी भला है कि कुत्ता बिल्ली के समान तुच्छ शत्रु हम लोगों को दो समझ के ऐसे ही डरते रहेंगे जैसे बिना घर बाले शूल से डरते हैं। पर हमारा जी नहीं चाहता कि जिसे मित्र का विशेषण दे चुके हैं उसे वार २ शूल २ कह के पुकारें। अस्मात् उस की स्तुति में यह गीत स्मर्तव्य है कि -'आव मेरे झूठन के सिरताज ! छल के रूप कपट की मूरति मिथ्यावाद जहाज !' यद्यपि जिस की प्रशंसा में भारतेन्दु जी ने यह वाक्य कहा है वह कपटी मित्र नहीं है, वह जिसे मित्र बनाता है उसे तीन लोक और तीन काल में सबसे बड़ा कर दिखाता है, किंतु कपटिगों ( राक्षसों ) को उच्छिन्न करके तब कही 'क्रोधोऽपि देवस्य नरेण तुल्यः' का उदाहरण दिखलाता है। इससे कहना चाहिए कि वह सभी का सच्चा हितू है काटी कदापि न हो और यदि कपट पर आ जाय तो महाराज बलि की नाई हमारा भी सर्वस्व बात की बात में मांग ले और क्या बात कि हमारी भौंह पर बल आने दे । आ हा! यदि वह हमसे कपट व्यवहार करें तो हमारे समान धन्यजन्मा कहीं ढूंढ़े न पिले । अतः यह कोई भी नहीं कह सकता, सच्चाई के पुथले ऋषिगण तथा भव्य शास्त्र शिरोमणि वेद भी नहीं कह सकते कि वह मित्र कपटी है अथवा कपटी है तो कम्वा । अन उस की चर्चा तो हृदय ही में रहने दीजिए। इन संसारी मित्रों के उपकारों को देखिए जो अपनी काट वृत्ति का भरमाला न छिपा सकने के कारण हमारी नजरों से गिर जाने पर भी अहित नहीं कर सकते । यदि कुछ भी गैरतदार हुए ( आशा है कि होगे, नहीं निरे बगरत होते तो कच्चे कपटी काहे को रहते ) तो मुंह न दिखावेगे । यदि सामने आए तो आंखें नीची रक्खे हए चाटुकारिता की बातों से प्रसन्न ही रखने की चेष्टा किया करेंगे और ऐसे लोग और कुछ न सही तो भी थोड़ी बहुत बनावटी खुशी उपना ही देते हैं। इसका उदाहरण सामान्य नायिका हैं जिन्हें सभी जानते हैं कि वास्तव में किसी की नहीं होती, केवल अपना स्वार्थ साधन करने के निमित्त मिथ्या स्नेह प्रदर्शन करती रहती हैं । इसी से बहुधा बुद्धिमान जन भी उन के मोह जाल में ऐसे फंस जाते हैं कि अपनी सत्य प्रेमवती अर्धागिनी तक को भूल जाते हैं । यह क्यो ? इसी से कि यह बिचारो अपने हृदय का सच्चा प्रेम भी प्रगट करना नहीं जानती किंतु वे निर्मूल स्नेह को भी बड़ी चमक दमक के साथ दिखा सकती हैं। फिर कौन कह सकता है कि स्नेह बनावटी भी मजेदार नहीं होता और जो स्वभाव का कपटी होगा वह मित्र बनने पर मिथ्या प्रेम अवश्य ही दिखावेगा। विशेषतः अपना भेद खुल जाने की लाज दूर करने को और भी अधिक ठकुरसुहाती कहेगा। अथच ठकुरसुहातो बातें वह हैं जो ईश्वर तक को रिझा लेती हैं, मनुष्य तो है ही क्या ? फिर हम कैसे मान लें कि कपटी मित्र बुरा होता है। वरंच सच्चा मित्र तो कभी २ हमारे वास्तविक हित के अनुरोध से हमें टेढ़ी मेढ़ी सुना के इष्ट भी कर देता है पर कपटीराम हमारे मुंह पर