पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३८७

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मित्र कपटी भी बुरा नहीं होता ] ३६३ कभी कड़ी बात कहेंगे मही कि हमें बुरी लगे। यदि आप परिणामदर्शी हैं तो बन में पा बैठिए और राम जी का भवन करके बन्म बिताइए जिस में अक्षय सुख प्राप्त हो । पर हम तो दुनियादार हैं, हमारा काम तो तभी चलता है जब कपटदेव की मूर्ति हृदय पट में संस्थापित किए हुए उनके पुजारियों को गोष्ठी का सुख उठाते हुए मजे में दिन बिताते रहें और इसमें यदि विचारशक्ति आ सता तो उसके निवारणार्थ इस मंत्र का स्मरण कर लिया करें कि "आकरत की खबर खुदा जाने, अब तो आराम से गुजरतो है" और सोच देखिए तो ऐसों से आगे के लिए क्या बुराई है। बुराई को जड़ तो पहिले ही से हमारे मित्र ने काट दी है। हमने मित्रता के अनुरोध से जी में ठान रक्खा था कि यदि हमारे प्रिय बंधु को आवश्यकता आ पड़ेगी तो अपना तन धन प्राण प्रतिष्ठा सर्वस्व निछावर कर देंगे और संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसे जीवन भर में दस पांच बार किसी के सहाय को परमावश्यकता न पड़ती हो। तथा यदि हमारे मित्र को दस बेर भी ऐसा अवसर आ पड़ता एवं प्रत्येक बार न्यूनान्यून सौ रुपया भी व्यय होता तो हम सहस्र मुद्रा अवश्य ही हाथ से खो बैठते, शरीर और प्राण यदि पूर्णरात्या न भी विसर्जन करते, तथापि देह पर दो चार घाव तया मन पर कुछ काल के लिए चिन्ताग्नि की आंच अवश्य सहते एवं प्रतिष्ठा में भी बहुत नहीं तो इतनी बाघा तो पड़ो जाती कि कचहरी में झूठी गवाही देते, वकीलों को भौहें ताकते, चपरासियो का झिड़की वा हाकिमों की डांट सहते । नोचेत् जिन से बोलने को जी न चाहे उन को भैया राजा बनाते, इत्यादि । पर मित्र जी ने सौ ही पचास रुपए में अपनी चालाकी दिखा के अपने चित्त की वृत्ति समझा के इन सब विपत्तियों से बचा लिया। अब हम उन्हें जान गए हैं, अतः अब उनके मनोविनोद अथवा आपदुद्धार के लिए हमारे पास क्या रखा है ? अब वह बला में फंसे तो हमारी बला से, वह अपने किए का फल पा रहे हैं तो हमें क्या ? हम क्यों हाय २ में पड़ें। जैसे सब लोग कौतुक देखते हैं हम भी देख लेंगे। मुहब्बत तो हई नहीं, मुरोवत न मानेगी, सामना पड़ने पर, 'अरे राम २ ! ऐसा दिन विधाता किसी को न दिखावै !' कह देना बहुत है, बस छुट्टी हुई। फिर भला ऐसे लोगों को कोई बुरा कह सकता है जो थोड़ी सी दक्षिणा ले के बड़े २ अरिष्टों से बचा लें और आप आपदा में पड़ के दूसरों के पक्ष में मनोरंजन अथवा उपदेश का हेतु हों। हां, प्राचीनकाल के सन्मार्गप्रदर्शक अथवा जमपुरी के कार्य संपादक उन्हें चाहे जो कहें सुनें किंतु हम तो उन में से नहीं हैं । फिर हम क्यों न कहें कि मित्र कपटी भी बुरा नहीं होता, मिष्ठान्न विषयुक्त भी कड़वा नहीं होता; और हमारा लेख ऊपपटांग भी बेम खं० ८, सं० १० ( मई, ह० सं०८)