पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३८९

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पढ़े लिखों के लक्षण ] को बढ़ाना पिष्टपेषण समझते हैं पर अपने पाटकों से पूछा चाहते हैं कि इन लक्षणों से देश अथवा जाति को किस भलाई की आशा हो सकती है ? इन से तो वही लोग अच्छे मो पढ़ने लिखने का नाम नहीं जानते अथवा कुछ मुड़िया कैथी नागरी व दुर्गापाठ सत्यनारायण कथा इत्यादि सीख के अपने कृषि वाणिज्य शिल्प सेवादि द्वारा अपना तथा अपने कुटुंब का पालन कर लेते हैं । ऐसों से यदि कोई उपकार न हो सके तो भी हिन्दूपन की एक सूरत तो बनी रहती है, यही क्या थोड़ा है ? पर हमारे बाबुओं की चले तो हिंदुस्तान का कोई पुराना चिन्ह (चिन्ह कैसा नाम ) भी न रक्खें । भाषा भोजन भेष भाव सब और के और हो जायं । इसी से हमारी समझ में सच्चे देशभक्तों को सब काम छोड़ के पहिले इस का उद्योग करना चाहिए कि सर्वसाधारण में निज सन्तान के वास्तविक सुधार की रुचि उत्पन्न हो। लोग अपने लड़कों को आंखें मीच के स्कूल भेज देने की भेड़ चाल छोड़ें क्योंकि वहाँ आत्मगौरव, स्वजातित्व, देश वात्सल्य सनातनाचार इत्यादि की शिक्षा नहीं होती जो मनुष्य जीवन का भूषण है । बरसों का समय और सैकड़ों रुपया केवल ऐसी ही पढ़ाई में जाता है जिसका फल इतना मात्र हो कि तन नाजुक, मन अपनेपन से फिरंट और जीवन केवल परसेवा द्वारा पेट पालने में बिता देने के योग्य रह जाय । यदि परमेश्वर की दया से भोजनाच्छादन की चिता न हो और कुछ नामवरी करने का शौक चर्राय तो या तो उपर्युक्त लक्षणों का पूरा नमूना बन के शुद्ध ज्यंटिलम्यन हो जाये और दूसरों को जाति पांति की रीति भांति धर्म कर्मादि के काम का न रखें या राजनैतिक विषयों में टंगड़ी अड़ा तो या तो खिताबी राजा बाबू सितारा आदि कहलाने को घुन मे चार दिन के पाहन हाकिमों की खुशामद के मारे प्रजा वर्ग का शाप संचयन करते रहें या बात २ मे सरि का मुकाबिला कर २ के गज कर्मचारियों को चिढ़ाया करें। भला इन लक्षणों और ऐसी करतूतों से विसकी क्या भलाई हो सकती है ? पर खेद है कि वृद्धि इन्हीं की देखने में आती है और अधिकांश में उद्योग भी इन्ही की प्राप्ति के होते रहते हैं। फिर हम क्यों न कहें कि इन नवयुवक एवं नवशिक्षित बाबुओं ही के क्या देश भर के लक्षण कुलक्षण हैं। क्योंकि भविष्यत की उन्नति अवनति इन्हीं पर निर्भर ठहरी और इन विचारों में विद्या ऐसी परमोत्तम वस्तु का फल उलटा दिखाई देता है अर्थात् जिन बातों को यह उन्नति का मूल समझते हैं वे यदि पूरी तरह फैल जायं तो हिंदुस्तान का वास्तविक रूप ही मट्टी में मिल जाय । केवल थोड़े से पुराने ढंग के बचे खुचे लोगों की जबान पर कहानी मात्र रह जाय कि भारतवर्ष आर्यावर्त अथवा हिंदुस्तान ऐसा देश था, वहां के निवासी ऐसे होते थे, उनका व्यवहार बर्ताव इत्यादि ऐसा था वैसा था और बस । यद्यपि यों होना है यहाँ मुश्किल और परमेश्वर न करे कि हो पर यतः ठान ऐसा ही होने का ठन रहा है। इससे देश हितैषियों को वर्तमान ढर्रा बदलने और अपनी प्रकृत दशा बनाए रखने का यत्न कर्तव्य है नहीं तो पढ़े लिखों के लक्षण बड़ा अच्छा रंग लावैगे। खं० ८, सं० १. (मई, ह. सं०८)