पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३९१

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ईश्वर की मूर्ति ] ३६७ क्योंकि मन न होगा तो दया ठहरेगी कहाँ, और शरीर न होगा तो मन रहेगा कहाँ ? जिस समय हम कहते हैं कि 'हे नाथ ! हमारी रक्षा करो, हम तुम्हें प्रणाम करते हैं। उस समय उस अप्रतिम के अस्तित्व मे हाथ और पांव की कल्पना करते हैं क्योकि रक्षा हाथों से की जाती है और प्रणाम चरणों पर किया जाता है । कारण के बिना कार्य का मान लेना तर्कशास्त्र के विरुद्ध है, फिर कौन निराकारवादी ईश्वर के मनःकल्पित हस्त- पदादि रचना से बच गया? गषाण धात्वादि निर्मित मूर्ति के पूजने वालो मे और इनमे केवल इतना ही अंतर है कि इनके यहां की ईश्वर प्रतिमा वेवल मन के भाव से गढ़ी जाती है और उनके यां की रजत काचनादि से, तथा यह मन और वचन से ईश्वर के हाथ पाव इत्यादि स्वीकार करते हुए भी देख नहीं सकते तथा सर्वसाधारण के आगे कहते हैं कि हमारा ईश्वर निरवयव है और वह जैसा मानते हैं वैसा सबके सामने कह भी देते हैं कि भाई, हमारा ईश्वर लंगड़ा लूला अधा बहिरा नहीं है, उसके कर पद नयनादि कमल के समान कोमल और सदर हैं । फिर मूर्तिपूजक लोग ईश्वर को कोन सो गाली देते हैं कि उन का आक्षेप किया जाय ? विचार के देखिए तो दूसरे पूजको के देम्वे इन मे इतनी शिषना है कि अन्य लोग वेवल उसकी महिमा तथा अपने स्व.र्थ साधनादि की प्रार्थना का केवल जबानी जमा खर्च रखते हैं। किंतु यह मन और वचन के अतिरिक्त चंदन पुष्पादि के द्वारा तन और राग भोगादि के द्वारा धन से भी उसकी सेवा करते हैं, अपने शयन भोग्नादि मे भी उसका स्वामित्व बनाए रहते हैं, वरच उसकी प्रसन्नता के लिये तीर्थ व्रतादि मे नाना कष्ट सहते हैं, काम पड़े तो उसके लिए प्राण तक उत्सर्ग कर देने को प्रस्तुत रहते हैं। इनके प्रेम की सच्चाई मे औरंगजेब के समय मसीह नामक फारसी कवि ने शाक्षी की भांति कहा था कि अन्य धर्मियो मे बहत थोडे लोग हैं, बरंच नही है, जो ईश्वर के नाम पर धन भी लुटा देते हो कित मूर्तिपू नको का साहस सराहने योग्य है जो उसकी प्रतिमा पर शिर तक निछावर कर देत है । एक ऐसे आर्यद्वेषी यवन सम्राट को यहां वाले विदेशा विद्वान की लेखनी से ऐमा बचन निकालना क्ण इस बात की पक्की शाक्षी नहीं है कि प्रतिमापूजक ईश्वर के साथ बहुत बड़ा प्रेम सम्बन्ध रखते हैं ? इन्हीं के समुदाय में ऐसे ज्ञानियो और प्रेमियो की संख्या अधिक निकलेगी जो संसार के यावत् सजीव निर्जीव पदार्थों को ईश्वर ही की मूति समझते हैं । "मैं सेवक सचराचर रूपरासि भगवन्त"-- इसका अभिप्राय कुती लोग न समझें तो कोई हानि नहीं है पर समझने वाले समझ सकते हैं कि जितनी मूर्तियां हैं वे सब ईश्वर से व्याप्त हैं और ईश्वर हो सबका एकमात्र स्वामी है । इन दोनो रीतियो से उन्हे ईश्वर को मूर्ति के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ? और जिस ईश्वर को हम अपना प्रेम पात्र समझते हैं उसके निवासस्थान वा अधिकृत पदार्थ तथा स्मारक चिह्नो की पूजा किए बिना क्योकर रह सकते हैं ? इस के लिए बड़े २ प्रमाण ढूंढ़ना • बनामे हक कसे कम जर फिशानद । खुशा हिम्मत कि बरयुत सर फिशानद ॥