पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३९२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१६८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली भी मानो उसके सच्चे प्रेम से जी चुराना है। मजनू ने एक बार लैला के पालित कुत्ते को अपना बहुमूल्य दुशाला उढ़ा दिया था और बड़े आदर से आलिंगन किया था। इस कथानक पर केवल वही लोग हंसे तो हंसा करें जिन को मतवाद अधिक प्रिय है किन्तु जिन्हें ईश्वर प्यारा है वे ऐसी कथाओं को बड़े आदर से सुनेंगे और मनायेंगे कि भगवान हमें भी ऐसा करे । पर जब तक हम ऐसे अधिकारी नहीं हए तब तक यदि उन मूर्तियों का आदर करें जिन के देखने से हमें ईश्वर के रूप गुण स्वभावादि स्मरण होता है, तो क्या बुरा करते हैं ? इस पर यदि हमारे विपक्षी साहेब कहें कि-'ऐसा है तो फिर जूता'"हाड़ इत्यादि को क्यों नहीं पूजते' ? तो हमारा यह उत्तर कहीं नहीं गया कि पूजा का अर्थ है सत्कार, और सत्कार उस का किया जाता है जिसे देख सुन के चित्त में प्रेम और प्रसन्नता आवै । अतः जिन्हें उक्त पदार्थों से प्रीति हो वे शौक से उन्हें पूर्जे पर हम तो अभी इस दर्जे को नही पहुँचे, हमें तो नीच प्रकृति के मनुष्यों तक से अश्रद्धा है, अस्मात् पाषाणादि मूर्तियों को पूजनीय मानेगे, जो न कभी किसी से छल कपट करती हैं न कुछ मांगती हैं न कटु वाक्य निकालती हैं । बरंच सम्मुख स्था होते ही हमारे प्यारे मुरली मुकुट धनुर्वाण खङ्गाकुंस त्रिशूलादिधारी हृदयविहारी का स्मरण कराती हैं जिस के साथ ही हमें वीरता निर्भयता रसिकता आदि की शिक्षा प्राप्त होती है और चन्दन कपूर्रादि की सुगन्ध से घ्राणेंद्रिय तथा मस्तिष्क आमोदित हो जाता है, पंचामृत प्रसा- दादि से मुख मोठा होता है, नाना भांति के गीत बाद्यादि से श्रवण पवित्र एवं प्रमुदित होते हैं, शृङ्गार की छटा तथा एक २ अंग की शोभा से नेत्र कृतार्थ होते हैं, फिर ऐसी तत्क्षण फलदायिनी प्रतिमाओं को हम क्यों न ईश्वर की प्रतिमा माने जिन के कारण इस गिरी दशा में भी हमारे सैकड़ों नगरों की शोभा और सहस्त्रों देशभाइयों का उपकार होता है । यदि नए मतवाली का ईश्वर इनके पूजन को अपना पूजन समझे तो हम सम- झते हैं वह उन लघुवयस्का निरक्षरा सुन्दरियों से भी नासमझ है जिन्हें हम दूसरों पर ढालकर अपने मन का स्नेह समझा देते हैं और वे संकेत मात्र से सब बातें समझ जाती हैं । बरंच इतर लोगों की लना से बोलने का अवसर न होने पर भी हमें संतोषदायक उत्तर दे देती हैं। पर ईश्वर महाराज इतना भी नहीं समझ सकते कि यह प्रतिमा को पूजता है अथवा हमको ? यदि ऐसा है तो हम ऐसे समझ के शत्रु को मानना कैसा ईश्वर ही कहना नहीं चाहते । हमारा ईश्वर तो बिना कहे भी हमारे हृदयगत भाव जान लेता है। तिस पर भी जब हम यह न कह के कि--'हे पाषाण, हमारी पूजा ग्रहण करो', यों कहते हैं कि--'हे परमेश्वर हमारी सेवा स्वीकार करो', तो ईश्वर ज्योंकर हमें बुत- परस्त समझेगा ? जब कि हमारी मूर्तियां ही ऐसी सुडौल सिर से पैर तक ईश्वरीय भाव पूर्ण होती हैं तो हम क्यों न अपने ईश्वर को उन्हीं के द्वारा रिझावें ? इस पर जो लोग हमें हंसते हैं उन्हें पहिले अपने यहां की मूर्तियों को देख के लजित होना चाहिए जिनका वर्णन उनके मान्य ग्रन्थों में ऐसा अधूरा किया गया है कि एक तो सब अंगों का बोध भी नहीं होता, केवल हाथ पांव नेत्रादि दो चार अवयव बणित हैं, सो भी ऐसे अनगढ़ कि किसी पंच ( हास्यजनक समाचारपत्र) में दे दिए जायं तो पाठकों को हंसाते २