पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३९४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[प्रतापनारायण-नांपावली है भी तो नहीं के बराबर । पर इन बातों में हमें क्या, बिना जाने हुए विषय में जो कुदेगा वह आप हास्यास्पद होगा । अतः हम अपने प्रस्ताव में क्यों विलंब करें। हम पर यह दोष लगाया जाता है कि सर्वव्यापी असीम परमात्मा को विसा दो बित्ता की मूर्ति ठहराते हैं। पर वेदों में जहां विराट स्वरूप का वर्णन है वहां भूमि उसके चरण और उसके सूर्य उसके नेत्र माने गए हैं। असोमता इस में भी नष्ट हो जाती है क्योंकि पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी स्कूल के बालक तक जानते हैं, वुह असीमता के आगे कुछ भी नहीं है । और सुनिए, नेत्र तो हुए सूर्य पर नेत्र के ऊपर वाले अंगों । मस्तक कपाल आदि ) का नाम ही नदारद । यदि खगोल विद्या के अनुसार मान लें कि नेत्र के ऊपर वाले अंगों के स्थानापन्न बह ग्रह नक्षत्रादि हैं जो सूर्य के ऊपर हैं तो बड़ा ही मजा हो । सूर्य के ऊपर हैं शनिश्चर, वह ईश्वर की खोपड़ी में जा बैठेंगे ! कौन पाने इसी से उनका रंग काला वर्णन किया गया हो और इसीसे मतवादियों के ईश्वर को अक्किल डांवांडोल रहती हो! इसके सिवा 'यस्यभूमिः प्रभातरिक्षमतोदरम्' तथा 'यस्य सूर्यश्चक्षुः' इत्यादि रिचानों से भूगोल विद्या के अनुसार और भी बड़े तमाशे की बात निकलती है । अर्थात् सूर्य धरती से लाखोंगुणा बड़ा है सो तो हुवा नेत्र और धरती हुई चरण जिसका वृत्त केवल पचीस सहस्र मील के लगभग है । इस लेखे से ईश्वर का स्वरूप 'राई भरे के बिटिया भांटा की बराबर आंख' का उदाहरण बना जाता है । इसके साप ही जब यह लिखा देखिएगा कि एक आंख सूर्य है दूसरी चंद्रमा, जो पृथिवी से भी कही छोटा है, तो हंसी रोकना मुश्किल पड़ेगा। वाह ! एक आंख गज भर की, दूसरी मालपीन की नोंक भर को भी नहीं ! चरणारविंद ऐसे विचित्र कि एक आंख की अपेक्षा लाखोंगुना छोटे और दूसरी आंख से बड़े । तिस पर भी तुर्रा यह कि आंखें भी गोल और पांव-भी गोल । मलाऐ सी विचित्र मूर्ति को कौन न कहेगा कि पंच की तसवीर है । मांख की छटाई बड़ाई का दोष 'सहस्रशीर्षा पुरुषः' वाले मंत्र में निकाल डाला गया है । पर यह दोष निकल जाने पर भी ईश्वर को मंगलमय कहते ही डरेगा क्योंकि जब सहस्र शिर हुए तो मां दो सहस्र चाहिए, पर यहां वे भी सहस्र ही है अतः मंगल स्वरूप के बदले शुक्र स्वरूप हुए जाते हैं, जो 'नमस्ते'. ही भाइयों के मध्य राज्य करने के काम के हैं न कि भक्तों के समुदाय में। इस प्रकार के कुतकं वेदों में बहुत जगह निकल सकते हैं जिनको अपेक्षा ईश्वर का न मानना ही भला है। पर आस्तिकों को उसके माने बिना शांति नहीं होती। इसी से पुराणों में जहां कही उसके स्वरूप की कल्पना की गई है वहां तदनुरूप यथातथ्य रीति से की गई है पर जिन्हें हार जीत का व्यसन है उन्हें पराए दोष ही इंटमे में संतोष होता है। पर हमारी दृष्टि में दूसरों को कुछ कहना अपने ही ऊपर दोष लगवाना है। इससे ईश्वर के विषय में केवल ऐसे वाक्य का अनुसरण करना श्रेयस्कर है कि 'मनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे।' इसके अनुसार चौराहे की ईट, मट्टी का ढेमा बोरा मोती की • न = नहीं है, मस्ते = मस्तक पर ( आंखें ) जिसके !