पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३९६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३७२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावरी के समाधानार्थ हम यह विदित कर देना उचित समझते हैं कि हमारा सिद्धांत प्रेम है, जिसकी स्तुति हमारा अंत:करण निर्भयता के साथ यहां तक करता है कि 'ब्रह्मा विष्णु महेश सब पूजत याके पार्य। परब्रह्म हू प्रेम को ध्यावत ध्यान लगाय ।' हम इस अपने अचल सिद्धांत को कभी किसी दशा में छोड़ दें तो हमारा कही ठिकाना न रहे । पर हां यतः अभी भगवान प्रेमदेव ने केवल तुच्छ दामों में हमें अंगीकार किया है, पूर्णरूप से हमारी संसारिकता का लोप नहीं हुवा, अतः यदि कोई हमारे आनंद में विघ्न डालने का मानस करता है तो दो एक बार उसे समझा देना अनुचित नहीं समझते । यद्यपि है यह भी वाहियात पर क्या किया जाय, जब तक वह पूरी तरह न अपना तब तक ऐसी बातों की परवा न करना हमारी सामर्थ्य से दूर है। इससे जब हम देखते हैं कि हमारे प्यारे भारतीय धर्म कर्मादि का किचित मात्र भी तत्व समझे बिना कोई आग्रही उसका विपक्षी बनने में साहसवान होता है तब हमें उचित उत्तर देना पड़ता है । हम किसी मत के पक्षी वा विपक्षी नहीं हैं पर सत्य का पक्ष और अपने भाइयों का पक्ष अवश्य करते हैं। हमारे यहां के पुराण इतिहासादि सब सत्य हैं और यदि कोई मनुष्यता के साथ उनकी सत्यता के विषय में प्रश्न करे तो हम संतोषदायक उत्तर देने को प्रस्तुत हैं। इसी प्रकार हमारे शव शाक्तादि सब भाई यदि श्रद्धापूर्वक अपने धर्म का तत्व समझ के उसका सत चित्त से अवलंबन करें तो हमें ही नहीं बरंच सच्चे मास्तिक मात्र को मान्य है तथा अपना लौकिक एवं पारलौकिक हित साधन में सक्षम हैं अस्मात् यदि कोई इनकी प्रतिष्ठा अथव सदुद्योग का पक्षपातपूर्वक उपहास करना चाहे उसे उचित उत्तर देना हम अपने धर्म का एक अंग समझते हैं। इसी के अनुसार हमने पंडितवर दीनदयाल शर्मादि के मनोहर व्याख्यान अपने कानों से सुन कर तथा उनके प्रभाव का कानपुर के सनातनर्मियों पर प्रभाव अपनी आंखों से देखकर उचित प्रशंसा के साथ सचा समाचार लिखा था, जिसकी साक्षी के लिये यहाँ के सहस्रों कुलीन प्रतिष्ठित विद्वान् विद्यमान हैं । पर हमारे सहयोगी महाशय उन सबको झठला के सच्ची घटना को केवल पक्षपात के वश झुठा बनाया चाहते थे । इसी से हमने उचित उत्तर दे दिया था। पर सच्चे और उचित तथा प्रामाणिक उत्तर को तो वह लोग मानते हैं जिन्हें न्याय और धर्म से कुछ भी जान पहिचान होती है। किंतु जिन्हें अपनी ही बात का भी छेड़ना झगड़े का मोल लेना है, जिसका सजनता अनुमोदन नहीं करती क्योंकि बाद का आनंद तब आता है जब समझदार और सभ्य लोगों से किया जाय तो उसका यह हाल है कि एप्रिल मास में हम थे बीमार । इससे पत्र संपादन कर न सके थे। पर हमारे परम सहायक श्रीमन्महाराजकुमार बाबू रामदीन सिंह महोग्य ने चलते हुए काम को रोकना उचित न समझ कर अन्यान्य सुलेखकों के लेख से पूर्ण करके इस पत्र को प्रकाश कर दिया था। उसमें एक लेख 'हम मूर्ति पूजक हैं' हम लोगों के परमपूज्य महात्मा हरिश्चंद्र का भी था जिसे 'आर्यावर्त' जी ने हमारा समझ कर अंड की बंड बातें लिख डाली पी। भला हम ऐसे समझदारों को क्या उत्तर दें जो इतमा भी नही समझ सकते कि