पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३९७

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लरते हैं और हाथ में तलवार नही] ३७३ 'ब्राह्मण' संपादक को महर्षि भारतेंदु के ढंग का लेख लिम्बने की सामथ्र्य कहाँ से आई। बैसा लेख लिखना तो क्या लिखने का मानस करना भी छोटा मुंह बड़ी बात है। इस समझदारी पर भी तुर्रा यह कि लेख का आशय कुछ भी न समझ कर पुराण और प्रतिमा की निंदा पर जा गिरे जिसका उत्तर तो बोसियों बार बोसियों विद्वान दे चुके और प्रत्युत्तर में साधु वाक्य सुन चुके पर हम केवल इतना पूछना चाहते हैं कि 'आर्यावर्त' संपादक वा कोई समाजी उस प्रकार के मूर्तिपूजन से बचे हुए हैं ? क्या वह अथवा उनके सहचरों में से कोई भी ऐसा है रिसे अपने शरीर तथा स्त्री पुत्र इष्ट मित्रादि का मोह न हो ? यदि है तो उसका जीवन मनुजता से कितना संबंध रखता है ? और नहीं है तो उक्त लेख पर आक्षेप करना सिवा अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देने के और क्या था । यही नहीं, इस समझ पर भी सम्यता यह है कि जिन असाधारण पुरुषों को देश के बड़े २ लोग हृदय से प्रतिष्टा करते हैं उनके पक्ष में आप वह २ शब्द प्रयुक्त कर उठाते हैं कि सभ्य समुदाय में शत्रुता के अवसर पर भी प्रयोग करने योग्य न हो । एक बार आपने आनरेबिल सैयद अहमद महाशय का नाम अंतिम दकार को ककार से बदल के इस रीति से लिखा था कि यदि अभियोग उपस्थित होता तो छापे की अशुद्धि का बहाना भी न चल सकता। श्री पंडित दीनदयालु जी को मुंशी लिखते २ भी संतोष न हुआ था तो एक बार यह लिख मारा था कि 'विचारे दयाला का दिवाला निकल गया' । यह उपर्युक्त दोनों सजन वस्तुतः ऐसे हैं कि कांग्रेस वा आर्यसमाज के गुणगायक न होने से सभ्य लोगों के मध्य अप्रतिष्ठित कदापि नहीं समझे जाते और यदि अपने अपराधियों को क्षमा न कर दें तो अच्छे अच्छों को दिखला सकते हैं कि कौन कितना है। पर इतना तो वह समझें जिसे सभ्यता से संबंध और आगे पीछे का कुछ भी विचार हो। इस गुण में भी हमारे साथ वादानुवाद में आपने ऐसा अनोखापन दिखाया है कि देखने से काम रखता है। आप एक लावनी लिखते हैं जिसकी टेक यह है कि 'धन हरण हेत पूजो हो बटिया काली। अब नहीं चलेगी तुमने बहुत चला लो'। इस में के जोहर यह हैं कि एक तो सिद्धांतविषयक विचार के ठौर पर व्यक्तिविषयक आक्षेप, सो भी इतने झूठे और असभ्य और धर्म एवं प्रतिष्ठा पर बेअदबी से भरे हुए कि या तो अदालत में उत्तर दिया जा सकता है या सभ्य मंडली से इस्तेयफा रेकर दिया जा सकता है। जैसे झूठे दोष हम पर आरोपित किए हैं उनसे अधिक घृणित और सच्चे यदि हम दिखला चलें तो उन्हें तो दुनिया जो कुछ कहेगी कहेगी ही किंतु हम पर भो यह आश्चर्य करेगी कि इसके लेखनी से यह शब्द क्योंकर निकले। इस पर भी तुरै पर तुर्रा यह कि उत्त लावनी में हमारा नाम है जिससे या तो यह प्रयोजन है कि जो लोग हमें नहीं जानते वह समझें कि यह भी सनातनधर्म का विरोधी होगा अथवा यह दिखलाना अभीष्ट होगा कि 'आर्यावर्त' ऐसी साफ तरह व्यक्ति विशेष को यों गालियां देने में भी किसी का भय नहीं करता। यह हम नहीं कह सकते कि सहयोगी हम से बैर रखता है पर इतना तो बुद्धिमान मात्र कह सकते हैं कि उसकी धर्मभीरता,