पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४०

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देशोन्नति मुसल्मानों के आने से पहिले हमारे देश में मुक्ति ऐसी सस्ती थी कि बे परिश्रम जो चाहे लूट ले। वही मुक्ति जिसके लिए बड़े बड़े रिषीश्वर जन्म भर बनों में तपस्या करते करते मर जाते थे, जिसके लिए शास्त्र में लिखा है कि "मुक्तिमिच्छसि चेवतात विषयान विषवत्त्यज", वही मुक्ति जगन्नाथ जी के मंदिर (जहाँ दीवारों पर ऐसी निर्लन मूर्तियां बनी हैं कि होली को कबीरों को मात कर दें) में ही आने मात्र से मिल जाती थी। इसकी भी सामर्थ्य न हो तो "गंगेत्वदर्शनान्मुक्तिः"। इसमें भी जी अलसाय तो किसी मत का पांच श्लोक वाला स्तोत्र पढ़ डालो, बस "मुक्तिभवति वै ध्रुवम्"। यह 'भी न सही तो "बारक नाम लेत जग जेऊ । होत तरन तारन नर तेऊ।" खैर इन बातों से किसी को कुछ हानि नहीं होतो, पर यार लोगों ने हद्द कर दी कि "मद्यमांस- सञ्चमरस्वञ्च मुद्रा मैथुनमेव " तक को मुक्ति का साधन लिख मारा। कहां तक कहें, ऐसा किसी चाल चलन का कोई पुरुष न था जो कहीं न कही, किसी न किसी महात्मा के बचनानुसार मुक्ति का भागी न हो। हमारा प्रयोजन किसी मत पर आक्षेप करने से नहीं है। क्या जाने किसी ने अपने चेलों या लड़कों को चिट्ठी भेजी हो कि "मैं गयावाल जी की कृपा से वा भैरव स्त्रोत्र के फल से मुक्त हो गया, यहां सत्यलोक में आनंद से है"। पर हमारी समझ में नहीं आता। क्योंकि शास्त्र देखने तथा विचार करने से यही सिद्ध होता है कि मुक्ति का परम साधन दुष्कर्मों का त्याग और परमेश्वर में सच्चा प्रेम है और मुक्ति का लक्षण सब दुःखों से छूट जाना है। यदि शास्त्र सच्चा है तो इन ऊपर लिखे उपायों को शेखचिल्ली को बातों के सिवा क्या कहा जाय ? ठोक मुक्ति ही की सी दशा आजकल देशोन्नति की देख पड़ती है। घर में देखो तो जो लाला कहैं "अरे तीण बजे से गङ्गा न्हाण क्यूं जाय है" तो ललाइन आपे से बाहर हो के उत्तर दें "मैं अपण सिर फोड़ गेरुंगी, देखो तो, धरम करम ने रोक है।" इधर पंडित जी आज्ञा करें "कुछी पढ़ा करौ" तो पंडिताइन खाय फेकौं करके कहें "काहे का अरिष्ट च्यातत हो, बैलायगे हो का? कती मेहरियो पढ़ती हैं ?" हमें ऐसे देशोन्नत्यभिलाषियों पर आश्चर्य आता है कि अपने घर की उन्नति किस बिरते पर किया चाहते हैं ? बहुतेरे बाबू लोगों की दशा प्रतिदिन देखने में आती है कि परमेश्वर की दया से बुड्ढे होने आए हैं पर यह ज्ञान नहीं है कि किस से कैसे बर्तना चाहिए । विद्या तो दूर रही, बातचीत का यह हाल है कि जो अशुद्ध फशुद्ध दो चार शब्द अपनी भाषा के बोलेंगे तो बीस बड़े बड़े कर्णकटु अलफाज अरबी अंगरेजी के, अपनी लियाकत दिखाने को, उसमें घुसेड़ लेंगे। बुद्धि की यह दशा है कि केवल नागरी जानने वाले ग्रामीण