पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४००

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली सुनो, जहाँ कोई रसीला छंद लिखा वा पड़ा, जहां दो पियाले चढ़ाए, जहां किसी सुंदरी का दर्शन स्पर्धन किया, जहां किसी अपने से चित्त वाले के पास जा बैठे वही सब दुःख दरिद्र मूल जाते हैं और तबीयत में ताजगी आ जाती है जो छल साधन की बड़ी भारी -सहायिनी है । जो लोग कहते हैं कि मनुष्य पंच सकार के संसर्ग से पागल हो जाता है उनका कहना ठीक नहीं है। क्योंकि पागल वह हो जाते हैं जो इनमें से किसी प्रकार के गुलाम बन जाते हैं अथवा नए २ आ फंसते हैं। किंतु जो इनके रसास्वादन के अम्यासी हैं तथा इन्हें परिमितिबद्ध रख के दास्य स्वीकार करने के स्थान पर मनोविनोद सम्पादन मात्र में इनको सहायता समयानुसार ले लिया करते हैं वे कदापि पागल नहीं बनते बरंग पागलपन की जड़ अर्थात् चित्त की उद्विग्नता दूर करके अधिक सावधान और चातुर्यमान हो जाते हैं और बहुधा देश काल पात्र का विचार करके इन्हीं के द्वारा दूसरों को पागल बना के, हंसा खिला मूंड लेते हैं। इतिहासवेत्ताओं और जगत्कौतुकदर्शकों से छिपा नहीं है कि नीतिज्ञ पुरुषों ने एक या दो ही सकारों के मायाजाल से ला के कितने ही बड़े बड़ों का तन मन धन मांग लिया है और आज भी मांग लेते हैं । फिर कोई क्यों कर सिद्ध कर सकता है कि सावधान पंचसकारी पागल होता है । हां, जो संगीत, साहित्य और सौहाद्रंय की पूंजी को सौगुना प्रसिद्ध करना तथा सुरा एवं सौंदर्य सम्पर्क को पूर्ण रूप से गुप्त रखना नहीं जानता वह अवश्य पागल है। किन्तु ऐसे पागल भला कापटय. शास्त्र क्या सीखेंगे। अतः उनकी चर्चा इस स्थल पर व्यर्थ है। हमारा लेख तो केवल उनके उपदेशार्थ है जो छल विद्या सीखना चाहते हों। उनसे हम अवश्य कहेगे कि पंच सकार का उचित रीति से सेवन करते रहिए तो यह पूछने की आवश्यकता न रहेगी कि क्योंकर सीखें । रहा दूसरा प्रश्न, अर्थात् कहाँ पर सीखें । इसका साधारण उत्तर तो यही है कि कपटी के कोई बाह्य चिह्न नहीं होते। जैसे सब मनुष्य है वैसे ही वे भी हुवा “करते हैं । अतः जिस पुरुष में कपटकारिता देखो उसी के चरित्रों से संथा ले लिया करो और दूमरों के प्रति उसी की चाल ढाल का अनुसरण किया करो। किंतु इस मंत्र को सदा स्मरण करते रहो कि जो कोई जान लेगा कि हम क्या करते हैं तो बुरा होगा। बस यों ही करते २ अच्छे खासे कपटी हो जाओगे । पर विशेष उत्तर सुनने की लालसा हो और शास्त्र का प्रमाण पाए बिना जी न भरता हो तो इस श्लोक को कंठस्थ कर रखिए कि 'देशाटनं पंडितमित्रता च बारांगना राजसभा प्रवेशः। अनेक शास्त्रावलोकन चातुर्यमूलानि वदंति संताः ॥" जो लोग द्रव्योपार्जनादि के लिए देश विदेश फिरा करते हैं अथवा बड़े नगरों में रह के नाना देश के लोगों की रीति व्यवहार देखा करते हैं उनसे छिपा नहीं है कि कई जाति के लोगों को ईश्वर ने ऐसा स्वाभाविक गुण दे रक्खा है कि 'उनमें के यदि हजार पांच सौ जन एकत्र किए जायं तो कदाचित एक ही दो ऐसे मिलेंगे जो शुद्ध 'छल के रूप कपट की मूरति मिथ्यावाद जहाज' न हों। हम उन जातियों का माम बतला के सेंत का झगड़ा मोल लेना नहीं चाहते किंतु बाहिरी लक्षण बतलाए देवे हैं कि बहुधा रंग गोरा, चेहरा खूबसूरत, शरीर निर्बल, स्वर मृदुल, मांस मदिरा से सच्ची घृणा नही, ईश्वर बौर धर्म का आग्रह नही, मित्रता शत्रुता का क्षण भर भरोसा नही,