पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४०४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली आदि मान्य पुरुषों का दोष सिद्ध हो जाने पर भी उनके लिए अप्रतिष्ठता का शब्द मुंह से कभी नहीं निकालते वरंच ऐसे अवसर पर 'खताए बुजुर्गा गिरफ्तनखतास्त' वाले वाक्य से सभ्यता का संरक्षण करते रहते हैं। किंतु हमारे सुसभ्य सुपठित महाशय वा दादों के बाप दादों की बड़ी २ और बड़े २ भावों से भरी हुई पुस्तकों को तुच्छ कह जरा भी नहीं शर्माते । परमेश्वर यदि नितांत दयाल हों तो उन जिह्वाओं और हाथों को भस्म कर दें जिनके द्वारा सभाओं में बका और कागजों पर लिखा जाता है कि वेद जंगलियों के गीत हैं, पुराण पोपों के जाल हैं, इतिहास का कोई ठिकाना ही नहीं है, काम्य में निरी झूठ और असभ्यता ही होती है इत्यादि । यदि हमारा सा सिद्धांत रखने वाले सहस्र दो सहस्र लोग भी होते तो ऐसों को बात २ का दंतत्रोटक उत्तर प्रतिदिन देते रहते । पर यतः अभी ऐसा नहीं है इससे जो थोड़े से सनातन धर्म के प्रेमी हैं उनसे हमारा निवेदन है कि यथासंभव ऐसों का साहस भंग करने में कभी उपेक्षा न किया करें। जिस विषय को भली भांति जानते हों उसकी उत्तमता सर्वसाधारण पर विदित करते रहना और उससे विरोधियों का मान मर्दन करते रहना अपने मुख्य कर्तव्यों में से समझे। तभी कल्याण होगा नहीं तो जमाने की हवा बिगड़ हो रही है, इसके द्वारा महा भयंकर रोगों की उत्तत्ति क्या आश्चर्य है। इतना भार हम अपने ऊपर लिए रखते हैं कि पुराणों की श्रेष्ठता समय २ पर दिखाते रहेंगे और यदि भल- मंसी के साथ कोई शंका करेगा तो उसका समाधान भी संतोषदायक रूप से करते रहेंगे। हमारे सहकारी हमारा हाथ बंटाने में प्रस्तुत हों और विरुद्धाचारी इस अखंडनीय वाक्य को सुन रखें कि पुराण अत्युच्च श्रेणी के साहित्य का भंडार है और भारतवासियों के पक्ष में लोक परलोक के वास्तविक कल्याण का आधार है। उनके समझने को समझ चाहिए । सो भो ऐसी कि भारतीय सुकवियों की लेख प्रणाली और भारतीय धर्म कर्म, रीति नीति, आचार व्यवहार के तत्व को समझ सकती हो तथा इस बात पर हढ़ विश्वास रखती हो कि हमारे पूर्वपुरुष त्रिकाल एवं त्रिलोक के विद्वानों बुद्धिमानों के आदि गुरु और शिरोमणि थे। उनकी स्थापना की हुई प्रत्येक बात सदा सब प्रकार से सर्वोतम और अचल है । उनको प्रतिष्ठा सच्चे मन और निष्कपट बचन से यों तो जो न करेगा वही अपनी बुद्धि की तुच्छता का परिचय देगा कितु आर्य कहला कर जो ऐसा न करे वह निस्संदेह उनसे उत्पन्न नहीं है, नहीं तो ऐसा किस देश का कौन सा श्रेष्ठ वंशज है जो बाप की इज्जत न करता हो और बाप से अधिक प्रतिष्ठित बाग को न समझता हो तथा यों ही उत्तरोत्तर पुरुषों की अधिकाधिक महिमा न करता हो। इस नियम के अनुसार पुराणकर्ता हमारे सैकड़ों सहस्रों पुरखो के पुरखा होते हैं। उनकी वेअदबी करना कहां की सुवंशजता है ? बस इतनी समझ होगी तो पुराणों की महिमा आप से आप समझ जाइएगा। यदि कुछ कसर रहेगी तो हमारे भविष्यत लेखों से जाती रहेगो नही तो संस्कृत पढ़े बिना अथवा पढ़ के भी साहित्य समझने योग्य समझ के बिना जब पुराणों के खंडन का मानस कीजिएगा तभी अपनी प्रतिष्ठा खंडित कर वैठिएगा, किमधिकं । सं० ८, सं० १२ ( जुलाई, १० सं० ८)