पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४०५

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क्या लिखें यदि हम यह प्रश्न किसी दूसरे से करें तो छुटते ही यह उत्तर मिलेगा कि तुम्हें हिन्दुस्तान और इंग्लिस्तान के सहृदय लोग सुलेखक समझते हैं, फिर इसका क्या पूछना, जो चाहो लिख मारो, पढ़ने वाले प्रसन्न ही होंगे। किन्तु यह उत्तर ठीक नहीं है क्यों कि लिखने का मुख्य प्रयोजन यह होता है कि जिस उद्देश्य से लिखा जाय उसकी कुछ सिद्धि देखने में आवै । सो उसके स्थान पर यहां जिनसे सिद्धि की आशा की जाती है उनके दर्शन ही दुर्लभ हैं । जहाँ श्री हरिश्चन्द्र सरीखे सुकवि और सुलेखक शिरोमणि के लिखने की यह कदर है कि बीस कोटि हिन्दुओं में से सौ पचास भी ऐसे न मिले कि हरिश्चन्द्र कला का उचित मूल्य देकर पढ़ तो लिया करते, करना धरना गया भाड़ में फिर भला वहां हम क्या आशा कर सकते हैं कि हमारा लिखना कभी सफल होगा। जहां सफलता के आश्रयदाताओं ही का अकाल नहीं तो महा महंगी अवश्य है वहां सफलता की आशा कसो ? हां, यदि इसको सफलता मान लीजिए तो बात न्यारी है कि राजनैतिक विषयों को छेड़ छाड़ करके राजपुरुषों को तो आंख में खटकते रहना, सामाजिक विषयों की चर्चा करके पुराने ढंग बाले बुड्ढों की गालियां सहना, सुचाल का नाम ले के मन- मौजियों का बैरी बनना, और धर्म की कथा कह के नए मतवालो के साथ रंड़हाव पुत- हाव मोल लेना, प्राचीन रीति नी .ते की उत्तमता दिखला के बिलायती दिमाग वालों में ओल्डफूल कहलाना इत्यादि, यदि यही सफलता है तो निष्फलता और दुष्फलता किसे कहते हैं ? इसी से पूछना पड़ता है कि क्या लिखें ? आप कहिएगा, सब झगड़े छोड़कर अपने प्रेम सिद्धांत ही के गीत क्यों नही गाते । पर उस के समझने वाले हम कहां से लावे, परमेश्वर के दर्शन भी दुर्लभ हैं, रहे सांसारिक प्रेमपात्र, उनका यह हाल है कि शिर काट के सामने रख दीजिए और उस पर चरण स्पर्श के लिए निवेदन कीजिए तो भी साफ इनकार अथवा बनावटी ही इकरार होगा। फिर क्या प्रेम सिद्धांत साधारण लोगों के सामने प्रकाश करने योग्य है जिनमे 'बोद्धारोमत्सरग्रस्ताः प्रभवस्मयदूषिताः अबोधोपहताश्चान्ये" का प्रत्यक्ष प्रमाण विद्यमान है। हा प्रेमदेव ! तुम हमारे श्मशान समान सुनसान मनोमंदिर में विराजमान होकर संसार को अपन महिमा क्या दिखा सकते हो ? हम तुम्हें कर्तुमकर्तुमन्यथा क्तुसमर्थ मानते हैं पर जब देखते हैं कि हमारा अपवित्र मुख तुम्हारा नाम भी लेने योग्य नहीं है, यदि बेहयाई से तुम्हारी चर्चा भी करें तो फल यह देखते हैं कि मुख से प्रेम का शब्द निकलते ही देर होती है किन्तु पागल निकम्मा बेशर्म बेधर्म इत्यादि की पदवी प्राप्त होते विलम्ब नहीं लगता। भला ऐसी दशा में प्रेम का यश गाना अपनी निंदा कराना और दूसरों को पाषाण हृदयत्व के लिए उत्तेजित करना ही है कि और कुछ ? यदि यह भी अंगीकार कर लें तो उस लोकातीत मनिर्वचनीय के विषय में लिखेंहीगे क्या? फिर बगाइए कि हम क्या लिखें ? ब्रह्मज्ञान