पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४१३

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प्रह्लादचरित्र ] ३८९ और अग्नि का दाहकत्व इत्यादि तो हम लोग साधारण औषधियों के योग से दूर कर सकते हैं । फिर क्या सर्वशक्तिमान परमेश्वर हम से भी अल्पसामर्थी है कि उसे के दूर न कर सके ? रहा नृसिंहावतार विषयक शंका समाधान, उसके हठी और दुराग्रही सामने तो हम क्या हैं ईश्वर को भी चुप रहना चाहिए। पर जिन्हें कुछ समझ हो वे इतने से समझ सकते हैं कि हिरन्यकशिपु ने तपस्या के उपरांत बरदान मांगने में जब अपनी रक्षा का कोई मार्ग रोक ही न रक्खा था और 'नमे भक्तः प्रणस्यति' का प्रण रखनेवाले परमात्मा को दृष्टि में बधदंड का पात्र भी था तो उसके विनाशार्थ विचित्र रीति के उद्घाटन के अतिरिक्त और उपाय ही क्या था ? जो माँग चुका था कि न दिन को मरूं न रात को मरूं उसके मारने को संध्या के अतिरिक्त कोन समय उपयुक्त होगा? जिसकी प्रर्थना थी कि न धरती पर मरूं न आकाश पर मरू उसके मारने को खंबे के अतिरिक्त कौन स्थान था ? ऐसी २ युक्तियों से समझदार लोग तो पुराणकर्ताओं की सूक्ष्म बुद्धि की प्रशंसा ही करेंगे कि वे तपस्या के फल को भी तुच्छ नहीं ठहराते और भगवद्विरोध का फल भी निश्चित रखते हैं तथा सच्ची घटनाओं को वर्णन भी इस रीति से करते हैं कि पढ़ने वाले केवल कहानी ही का मा स्वादु न पाकर यदि साहित्य से कुछ परिचय रखते हो तो काव्यानंद भी लाभ करें। विशेषतः यह कथा विचारशील, सारग्राही और तत्वदर्शी सज्जनों को सिखलाती है कि यदि अपने संतान को सुरूपवान बनाया चाहो तो स्त्रियों के हृदय में देव तुल्य श्रद्धास्पद पुरुषों का ध्यान जमाने में यत्न करो। उनके सुदृश्य छायाचित्र का दर्शन करा के अथवा रूप का विवरण सुनाके उनकी प्रतिमा गृहदेवियों के मनोमंदिर में स्थापित कर दो। नहीं तो सबसे उत्तम यह है कि उनके साथ इतनो प्रीति बढ़ाओ कि प्रति क्षण तुम्हारा प्रतिबिंब उनके मन मे बसता रहे। इस प्रकार से तुम्हारे लड़के बालों का रूप रंग तुम्हारो इच्छा के अनुकूल होगा। यदि चाहते हो कि बालक सुसील, सुमार्गो, हरिभक्त, देशभक्त, सद्गुणानुरक्त इत्-आदि हों तो अपनी अधॉगियों को गर्भधारण के समय सत्यपुरुषों के जीवनचरित्र तथा उनके सद्ग्रंथ नित्यमेव सुनाते समझा। अथवा पड़ाते रहो और साथ ही उत्तमोत्तम वस्तु भोजनादि से गृहेश्वरी का पूजन भी करते रहो। इस रीति से तुम्हारी संतति की अचला प्रकृति भी जैसी तुम चाहते हो वैसी ही होगी। इसके अतिरिक्त यह भी विश्वास रक्खो कि भगवान् के सच्चे प्रेमी को संसार की कोई विपत्ति बाधा नहीं कर सकती अथच उनका विरोधी कैसा ही धनी बली सुशिक्षित देवरक्षित क्यों न हो किंतु अपने किए का फल अवश्यमेव पाता है। यदि इतना समझ कर भी आपका हृदय प्रेमामृत पान के लिए तृषित न हो और ऐसी कथा से आप उपदेश लाभ करने के स्थान पर खंडन मंडन के ही लती बने रहें तो पुराण तो पुस्तक हो मात्र हैं,पुराणपुरुष परमेश्वर भी आप से हार जायंगे बरंच गंदी दलीलों से घृणा करके दुनियां से भाग जाय तो भी आश्चर्य नहीं है। राक्षस तक के लड़कों को इतना दुदकारना तुम्हें शोभा नहीं देता। अतः इनकी चाल ढाल की ओर न देख कर अपनी दशा को ओर देखो। खं. ९, सं. १ ( अगस्त, हः सं०८)