पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४१७

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अगड़ालू पंय ] म होगा तो यही कहां का थोड़ा है कि इस जाति के पढ़े लिखों को खुलाखुली आयुक्त काम करते कुछ लजा आवेगी और पश्चिमी सभ्य तथा नए मतवालों का निन्दा करने में मुंह न पड़ेगा । इधर हमारे कई मित्रो की राय है कि जिनका गोत्र प्रवरादि विदित न हों उन्हे तो केवल महर्षिकुमार ही लिवना ठीक है और आगे के लिए पूछ लेना उचित है किन्तु जिनका ज्ञात है उनके नाम के पहिले उन मर्षि का नाम भी लिखना चाहिए जिनके वे वंशज हो यथा- श्रीमन्म षि कश्यपकुमार श्री• म०म० भरद्वाजकुमार- इत्यादि । ऐसा करने से समय २ पर महर्षियो के नाम गुणादि का स्मरण भी होता रहेगा। यह राय हमे बहुत पसंद है अस्मात हम आगे से इसके अनुसार बर्ताव करेंगे। हमारे मित्रगण हमे अपने अपने आदि पुरुष का पवित्र नाम बतला दें तो बडी कृपा होगी। यदि हमसे पूछना हो तो सुन रखिए-हम हैं "श्रीमन्महर्षि कात्यायनकुमार" अथवा हमारे सबसे बडे बाबा विश्वामित्र के नाम से प्रीति हो तो लिखिए 'श्रीमन्महर्षि वौशिककुमार।" खं० २, सं० ४ ( नवबर ह० सं०८) झगड़ालू पंथ विचारशीलो से छिपा नहीं है कि भारतवर्ष के लिए त्रिकाल मे धर्म ही सब कुछ है । क्या शारीरिक क्या सामाजिक क्या आत्मिक क्या राजनैतिक क्या लौकिक क्या पारलौकिक सभी प्रकार को समुन्नति का आधार धर्म ही है । इस बात का यदि पश्चिमीय सम्यता के सभ्य न समझें तो उनकी समझ का दोष है नही तो हम प्रणपूर्वक कहते हैं कि जो कोई दृढता के साथ हमारे सनातनधर्म का कुछ दिन पूर्ण राति से साधन करे व प्रत्यक्ष देख लेगा कि सभी भाति के सुग्व और सुभीते सहजतया प्राप्त होते हैं । पर यतः वह परमात्मा का स्वरूप है इससे उसका ठोक २ समस्त भेद जान लेना सहज नहीं है इसी से बुद्धिमानो ने यह सुविधामय सिद्धांत स्थापन कर लिया है कि 'महाजनो येन गतः स पंथा' । यदि विचार कर देखिए तो निश्चय हो जायगा कि हमलोगो के पिता पितामहादि जिस रीति नीति को असंकुचित भाव से मानते रहे हैं उसका निकास अवश्यमेव किसी न किसी महर्षि के मस्तिष्क से हुआ है और उसका पूर्ण ज्ञान न प्राप्त कर सकने पर भी यदि हम उसे आंखें मोचे हुए मानते रहे तो प्रत्यक्षतया मोटी बुद्धि से चाहे कोई फल न भी देख पड़े अथवा काल कर्मादि के व्युतिक्रम से कदाचित कुछ कष्ट वा हानि भी जान पड़े किन्तु परिणाम अच्छा ही होता है। इसी से इन गरे दिनो में भी हमारे देश के तृतीयांश से अधिक निवासी जी से धर्म का आदर करते हैं और समय