पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४१८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

पड़ने पर मुख से उसकी स्तुति ही करते हैं। कर्म के द्वारा उसका पालन कर सकना भाग्य और दशा के आधीन है। यदि धर्म का पूरा २ विवरण कोई लिखा चाहे तो कदाचित् सहस्रों वर्ष में भी इतिश्री न कर सके क्योंकि यह विषय हो ऐसा है कि जितने विस्तार के साथ वर्णित हो उतनी ही अधिक बड़ाई देख पड़ेगी। इससे हम केवल साधारण-दष्टि से इतना मात्र उसका लक्षण मानते हैं कि परमेश्वर को अपने प्रेम और प्रतिष्ठा का आधार मान कर अपने लोक परलोक सम्बन्धी कल्याण के निमित्त उसका भजन यमन करते रहना ही धर्म का साधारण रूप है। पर यस्मात उसका जानना और मानना भी सहज नही है । अतः हमारे पूर्वजों ने उसके लिए पांच मार्ग नियत कर रक्खे हैं क्योंकि सृष्टि में कितने जड़ चेतन पदार्थ हैं उन सब की बाहिक एवं आंतरिक रचना पांच तत्व अर्थात पृथिवी जल अग्नि वायु और आकाश से हुई है। इन्ही तत्वों के अंशों के तारतम्य के कारण प्रत्येक पुरुष को प्रकृति एवं रुचि न्यारी २ हुआ करती है । उसी के सूक्ष्म विचारा-नुसार प्राचीन पूज्यों ने परमात्मा का जीवित सम्बन्ध स्थाई करने को उनकेनाम रूप गुण स्वाभावादि यद्यपि अनंत है तथापि मानने वालो के स्वभाव की गति पांच प्रकार की होने के कारण पंचोपासना की रीति नियत कर रक्खी है। उनके उपासकों के यहां पूज्य मूर्तियां एवं पूजादि की पद्धति भिन्न सी दिखलाई देने पर भी वास्तव में एक है। शास्त्रों में खुला हुआ लिखा है कि शिव विष्णु शत्ति सूर्य अथच गणेश में भेद समझना महापाप और बब मुर्खता है। यदि व्याकरण की रीति से देखिए तो भी यह कहने का साहस पड़ना असंभव होगा कि कल्याण स्वरूप सर्वसमुदायाधिपति इत्यादि एक हो अनंत विशेषणविशिष्ट के विशेषण नही हैं और तनिक भी विचारशक्ति से काम लीजिए तो यह सिद्ध करना महा कठिन होगा कि उसका स्वरूप तथा पूजन प्रकार केवल ऐसा हो है ऐसा नहीं हो सकता। यदि मनोदृष्टि पक्षपात के रोग से दुषित न हो और सहृदयता के अंजन से अंजित की जाय तो प्रत्यक्ष देख पड़ेगा कि शव बैश्नव शाक्त सौर और गाण-पत्य लोगों के यहां ईश्वर की महिमा तथा जीव के वास्तविक कल्यण के सभी मनो-विनोदक एवं शान्तिकारक समान पुठकलता के साथ विद्यमान है तथा प्रत्येक सम्प्रदाय की अनेक शाखाओं में से एक २ के मध्य उपास्यदेव की महान महिमा और उपासक के आनन्द प्राप्ति की रीति बह २ देखने में आती है कि साधारण बुद्धि को समझने की सामर्थ्य नहीं। किन्तु कुतर्क का सहारा छोड़ कर यदि कोई एक का भी सचा आश्रित हो बैठे उसके लिए शांति लाभ में किसी भांति की त्रुटि नहीं रह जाती । यद्यपि प्रेमियों और ज्ञानियों के लिए किसी नियम के अबलम्बन की आवश्यकता नहीं होती, उनके निमित्त परमानन्द का मार्ग सभी ओर खुला रहता है, किन्तु साधारण जनसमूह के पक्ष में हम मुक्त कण्ठ से कहेंगे कि उपयुक्त पंचसम्प्रदाय में से किसी न किसी का आश्रय लिए बिना उद्धार की आशा दुराणा मात्र है। इनमें से यद्यपि कही २ किसी र सम्प्रदाय के किसी २ अंश पर कुछ २ आक्षेप भी देखने में आते हैं पर उमका अभिप्राय केव अनन्यता का दृढ़ीकरण है अन्यों को निन्दा कदापि नहीं है। इसी कारण सदा से सब मतों के साघु प्रकृति वाले लोग केवल अपने इष्टदेव को सर्वेभर तथा दूसरों को उसके