पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४१९

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सनहालू पंप] अभिन्न मित्रों की माई मानते है बार अपने लिए अपनी इसरों को उनकी ही रीति नीति का अवलम्बन श्रेयस्कर जानते हैं। वो कहने के लती अपने ही सहधर्मियों की बात २ पर मुंह विचका के कका के लिए सद्ध हों तो उनकी इच्छा को कौन रोक सकता है पर किसी मत का कोई समझदार सच्चे जी से यह नहीं कह सकता कि हमारे सम्प्र- दायियों को छोड़ के और सब की सभी बात वस्तुतः बुरी हैं। अभी बीस पचीस वर्ष से अधिक नहीं बीते कि उस समय तक अब कभी शव शाक्तादि के मध्य धर्मविषयक वादानुवाद उपस्थित होता था तो परस्पर के मनबहलाव और अपनी विद्या बुद्धि की प्रकर्षता के द्वारा अपने मार्ग का कोई अंश अत्युत्तम सिद्ध करके. बादी को निरुत्तर कर देने की चेष्टा के अतिरिक्त आपस के विरोध का नाम न आने पाता था। पूर्व काल के इतिहास में भी द्वेष केवल बैदिक और बौद्धों में पाया जाता है सो भी इस कारण कि बुध भगवान के मतानुयायी ईश्वर और वेद को नहीं मानते अथच किसी काल में समस्त भारत पर आधिपत्य जमाने के लिए उद्योगवान हुए थे। किन्तु पंचो- पासक मात्र एक दूसरे को अपने साथ कुछ २ मिन्नता रखने पर भी अपना भाई ही जानते थे क्योंकि सभी सब के धर्म का मूल वेद शास्त्र पुराण एवं विश्वास का आधार ईश्वर वेद परलोक तथा प्रतिष्टा के पात्र देवता पितर गऊ ब्राह्मण तीर्थ व्रतादि को समझते थे। किसी काल में किसी देश के सभी लोग असाधारण विद्याबुद्धिविशिष्ट नहीं होते और आर्यभूमि भी इस मिबम से न्यारी नहीं है। किन्तु जैसे सब कहीं के कुछ निवासी कुछ बातों को अपने कल्याण का हेतु मानते हैं वैसे ही यहाँ वाले भी मानते हैं कि जिन बातों को अपने बाप दादे अच्छा मानते रहे हैं वही हमारे पक्ष में अच्छी हैं और विचार कर देखिए तो वास्तव में उनके द्वारा हमारी भलाई ही होती भी है। पर इस भलाई का सत्यानाश करने की मनसा से भारत के दुर्भाग्य ने कुछ दिन से एक झगड़ाल पन्थ निकाल दिया है जिसके पपिकगण सनातन मागं बालों से छेड़ के झगड़ा मोल लेना और प्रत्येक मत के मान्य पुरुषो तथा श्रद्धेय रीति नीतियों को बुरा ठहराना ही अपना परम धर्म समझते हैं । यद्यपि मुंह से एकता ही के गीत गाया करते हैं पर करतूतों के द्वारा पिता पुत्र, भाई भाई तक में फुट फलाने का ठान ठानते हैं । जीवित माता पितादि को सेवा करके प्रसन्न रखना अच्छा बतलाते हैं पर जिन बातों को जननी जनक बाल्यावस्था से लोक परलोक का सर्वस्व मानते हैं तो कौन कह सकता है कि सुन २ कर मां बाप 'पुलक प्रफुल्लित पूरित गात' होकर रोम २ से न असीसते होंगे । यदि यह लोग खुल्लम- खुल्ला विधर्मी होते तो भी कोई बड़ी हानि न करते क्योंकि सब कोई यह समझ कर दूर रहता कि अब हमारा इनसे कोई संबंध नहीं रहा! पर बड़े खेद का स्पल यह है कि हमारे ही थोड़े से धर्मग्रंथों और मान्य पुरुषों को मानने वाले यह भी बनते हैं इसी से 'गुड़ भरा हंसिया न निगलते बने न उगलते बने' बैना हो रही है । यदि अपने विचार अपने ही सहवतियों में बनाए रखें तो भी यह समझ लिया जाय कि जहां हिंदुओं में और अनेक मत है वहाँ एक यह भी सही। पर अनर्थ तो यही है कि यह अल्पविश्वासियों के बहकाने पाले बैठे बिठाए शांतिभंग का उद्योग करते रहते हैं।