पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
प्रतिष्ठा केवलप्रेम देव की है ]
३९७
 

प्रतिमा केवल प्रेमदेव की है ] ३९७ प्राणाधार, जीवितश्वर इत्यादि कहा करते हैं ? इसके उत्सर में यदि आप कहिए कि हमारे पास बहुत सा धन है, बहुत सी विद्या है, बड़ी भारी बुद्धि है, बड़ा भारी बल है, हम बड़े लिखबाड़ हैं, बड़े बोलनेवाले हैं, बड़े न्यायी हैं, बड़े प्रबंध कर्ता हैं, बड़े दाता हैं, बड़े सुंदर हैं, बड़े मनोहर हैं फिर क्यों न हमारी खुशामद करोगे ? इसका जवाब हमारे पाम भी मौजूद है कि अप जो वृछ हैं. अपने लिए हैं हमे क्या ? आपकी विद्या से हम विद्वान न हो जायेंगे, आपके धन बलादि से धनी हली इत्यादि न बन जायेंगे फिर हम कों चुटकी बझाते हैं ? यह तो कभी संभव ही नही है कि आप ही ईश्वर व यहाँ से सब बातों का ठेका ले साए हों अब कोई किस अंश मे आपको समता न कर सकता हो । ससार में एक से एक इक्कीस वर्ममान। हमारे देखे सुने हुए कई ऐसे है जो आपसे कहीं चढ़े बढ़े प्रत्यक्ष देख पड़ते हैं पर हम उनका नाम भी आके सामने नहीं लेते बरंच आपका उनका सामना, पड़ जाय तो आपकी तरफ हो के उनकी लेख देव कर डालने में कोई कप्तर उठा रखने को पाप समझें, चाहे वह हमसे वैसी ही जाहिरदारी का बर्ताव क्यों न करें और आप चाहे हमे सीधी आँखों देखना भी अपनी शान बईद समझते हों पर हम आपका मनसा चाचा कर्मणा आदर ही करते हैं और ईश्वर कोई विघ्न न डाले तो इरादा यही रखते हैं कि 'मरते रहेंगे तुम ही प जीते हैं जब तलक' । यह क्यों ? केवल इसी कारण कि हम आपके रूप गुण स्वभाव आदि मे से किसी वा सभी बात से प्रेम रखते हैं । अथवा आप हमारे प्रेम का गुण न जानने के हेतु से हमारे आवरणादि का उचित सम्मान न कीजिए तो भी आपके चार काम कर देने से हमे थोड़ा बहुत हाया मिल रहता है। आपके साथ रहने से हमारे सताने वाले दबे रहते हैं। आपकी बात सुनने से हमें बहुत सी मतलब की बातें मालूम होती हैं । आपकी छाया से हमें सुभीता मिलता है, आपके रेशन से हमारी आँखें टंढी होती हैं इसीसे हम 'बिन व्यादर पाये हू बैठि ढिग अपनी रुख दे रख लीजत हैं ।' यह भी आपके साथ संबंध रखने वाला प्रेम न सही तथापि हमारा आत्मसंबंधी प्रेम है ! इन दोनों बातों पर सूक्ष्म विचार कर सकने पर क्या आप न कह देंगे कि प्रतिष्ठा केबल प्रेमदेव की है। ___ यही नहीं कि हमी आप प्रात्मगत अथवा भवदीय प्रेम के कारण एक दूसरे की प्रतिष्ठा करते हों। संसार में विचार कर देखिए तो सभी सब छोटे बड़े बराबर वालों का प्यार सत्कार केवल प्रेम के कारण करते हैं। हम अपने पुत्र कलत्र शिष्य सेवक वरंच कुत्ते और जूते तक को बिगाड़ना नहीं चाहते। तन मन धन से इन्हें सुधारने में लगे रहते हैं। यह बिगड़े तो हमारी इज्जत बिगाड़ दें। माता पितादि पूज्य व्यक्ति कंठित हों तो लोक परलोक के काम का न रक्खें । भाई भगिनी इष्ट मित्रादि प्रतिकूल हो जाये तो हमें जीवनयात्रा में कंटक ही कंटक दृष्टि पड़ने लगें। इसी से हमें सबका आदर मान करना पड़ता है पर यह सब वास्तव में किसका है ? इसके उत्तर में विचार- शक्ति कहती है . 'प्रेम देवस्य केवलम्'। जिनसे हमें प्रेम है उन्ही को हम डरते हैं उन्हीं की प्रतिष्ठा करते हैं और इसीसे हमारा तथा उनका निर्वाह होता है नहीं तो किसी के