३९८ [ प्रतापनारायण-पापली बिना किसी का कोई काम अटक नहीं रहता फिर क्यों कोई किसी को कुछ पूछे ? सबके सभी 'ना हम काहू के कोऊ न हमारा' बाला सिata ले बैठे और दुनिया के सारे खेल बिगड़ विगुड़ के बराबर हो जाय ! पर वे प्रेमदेव ही है जो सब के मध्य अपना प्रकाश करके सभी का काम चलाए जाते हैं और इसी में सबकी प्रतिष्ठा भी है। बस्मात् हमें यह कहने से कौन रोक सकता है कि प्रतिष्ठा केवल प्रेमदेव की है ! ____एक बार दो माइयों में झगड़ा हुआ तो एक ने कहा 'हमें अलग कर दो हमारा तुम्हारे साथ रहने में निवाह नहीं है।' इस पर दूसरे बुद्धिमान बंधु ने उत्तर दिया कि 'अलग होने में लगता ही क्या है ? न तुम्हारे कपड़े मेरे अंग में ठीक होते हैं न मेरे तुम्हारे देह को उपयुक्त होते हैं। न मेरे खाने पीने से तूम्हारी भूख प्यास बुलती है न तुम्हारे भोजन गन से मेरा पेट भर जाता है। तुम्हारी स्त्री तुम्हारा पुत्र तुम्हारे कार्योपयोगी पदार्थ मेरे नहीं कहलाते, मेरे हैं वह तुम्हारे काम नहीं आते। केवल आपस का स्नेहभाव था जिसके कारण मैं तुम्हारे दुख सुख को अपना दुख सुब समझ कर अपने कामों का हज करके तुम्हारी सहायता करता था और एक घर में दो गृहस्थियों के झंझट झेलता था। वह भाईपन अब नहीं रहा तो फिर बमग तो परमेश्वर ही ने किया है। जैसे सब वस्तु अब्ग है वैसे ही दो तीन पैसे का तबा ले आवो रोटी भी अलग पका करे बनाने वाले की आधी मिहनत बचेगी। एक को दूसरे के दुःख में हाय २ करके दौड़ना न पड़ेगा बस छुट्टी हुई। रही दूसरों को दृष्टि में हमारी तुम्हारी भलमनसो, वह नित्य की दांताकिलकिल के मारे जैसे अब नहीं है वैसे ही तब न रहेगी फिर उसका झीखना ही क्या?' पाठक महाशब! यह कथा हमारी गढी हई नही है आंखों देखी हुई है और आशा है कि आपने भी ऐसे अवसर देखे न होंगे तो सुने होंगे, सुने भी न हों तो समझ सकते हैं कि ऐसा होना प्रेम के अभाव में असंभव नहीं होता। फिर क्या ऐसो २ बाते देख सुन सोच समझ कर भी कोई समझदार न कह देगा कि प्रतिष्ठा केवल प्रेमदेव को है। यदि सांसारिक उदाहरणों से जी न भरता हो तो कृपा करके बतलाइए तो आपके परमार्थ का मूल धर्मग्रन्थ कागज स्याही और समझ में आ जाने वाली बातों के सिवा क्या है जो एक दियासलाई से जल के राख और पुल्लू भर पानी से गल के आटे की सी लोई हो सकते हैं । देव मंदिर देव प्रतिमा क्या हैं ? केवल मट्टी पत्थर चूना आदि का विकार, जो हमारे बचाए बिना बच नहीं सकते और अपने गाल पर बैठी हुई मक्खी उड़ाने की शक्ति नहीं रखते। ऋषि मुनि पीर पगंबर इत्यादि क्या है ? सहस्रों वर्ष के मरे हुए मुरदे, जिनको अब ढूंढने से हड्डियां मी नहीं मिल सकती। इन प्रश्नों से आप हमें दयानंदी समझते हों तो हम पूछेगे कि परब्रह्म परमेश्वर ही क्या है, केवल एक शब्द मात्र ही, जिसके लक्षण ही में अपनी २ सफलो अपने २ राग का लेखा है, अस्तित्व का तो सपने में भी सिद्ध होना लोहे के चने हैं। फिर हम इन सब को क्यों अपने लोक परलोक का बाधार समझते हैं ? क्यों हम इनके निदकों को नास्तिक समझ कर शास्त्रार्थ चरंच शस्त्रान तक से मर्दन करने पर उतारू होते हैं ? क्या इसका उत्तर एकमात्र यही नहीं है कि हमें अपने धर्म कर्म देव पित्रादि से प्रेम है इसी से प्रत्यक्ष प्रमाण न पाने पर