पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४२४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४०० [प्रसारनारायन ग्रंथावली जान सकते कि इस समय हम जो कुछ कर धर वा देख सुन रहे हैं वह सब मिथ्या कल्पना है। बिलायतो दिमाग वाले लोग कहते हैं कि स्वप्न का कुछ फल नहीं होता पर यदि उन्हें विचारशक्ति से जान पहिचान हो तो सोच सकते हैं कि प्रत्यक्ष फल तो यही है सोता हुआ पुरुष खाट पर पड़े २ कहा २ फिरता रहता है, क्या २ देखता रहता है, कैसे सुम्ब दुःखादि का अनुभव करता है। यह निरा निष्फल कैसे कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त हमारे पूर्वजों ने जो बातें निश्चित की हैं यह कभी झूठ नहीं हो सकती। हमने तथा हमारे बहुत से विद्याबुद्धि विशारद मित्रों ने स्वयं सैकड़ों बार अनुभव किया है कि जो स्वप्न हाल की देखी सुनी बातों पर देखे जाते हैं उन्हें छोड़ कर और जितने आकस्मातिक सपने हैं. सबका फल अवश्य होता है। जिसे विश्वास न हो वह आप इस बात को ध्यान में रख के परीक्षा कर ले कि जब कभी सपने में भोजन किए जायंगे तव दो ही चार दिन अथवा एक ही दो सप्ताह के उपरांत कोई न कोई रोग अवश्य सतावैगा, जब कभी तामे के पात्र अथबा मुद्रा देखने में आवंगी तब शीघ्र ही किसी पिय व्यक्ति की मृत्यु के वियोग से अवश्य रोना पड़ेगा.जब नदी में स्नान करने या तैरने का स्वप्न देख पड़ेगा तो वर्तमान रोग की शीघ्र ही मुक्ति हो जायगी, सपने में रोगा वह जागकर कुछ ही काल में प्रसन्नतापूर्वक हंसैगा अवश्य तथा जो स्वप्न मे हंसगा वह जागृत अवस्था में रोए बिना न रहेगा । ऐसे २ अनेक सपने हैं जिनका वृत्तान्त ग्रंथों मे लिखा हुआ है और फल अवश्य होता है । पर कोई हठतः न माने तो बात ही न्यारी है । हमारे पाठक कहते होगे आज क्या भांग खा के लिखने बैठे हैं जो अंट की संट हांक रहे हैं। पर वह विचार कर देखेंगे तो जान जायंगे कि स्वप्न भी चिन्ताशक्ति की लीलाएं हैं और यह वह शक्ति है जिसका अवरोध करना मनुष्य के पक्ष मे इतना दुसाध्य है कि असाध्य कहना भी अत्यत्ति न समझनी चाहिए। वह चाहे जागने में अपना प्राबल्य दिखलायै चाहे सोते में किन्तु परवश सब अवस्था में कर देती है जिसके प्रपाव से हम सोते में भी मारे २ फिरते हैं और जिन पुरुषो तथा पदार्थों का अस्तित्व नहीं है उनका संसर्ग प्राप्त करके मुंदी हुई शक्तिहीन आंखों से आंसू बहाते अथवा नाना घटनाए देखते हैं, बंद मुंह से बातें करते और टट्टा मारते हैं, बरंच कभी २ उसी की प्रेरणा से से मृतकवत् पड़े हुए भी सचमुच खटिया छोड़ भागते हैं, उसकी जागृत दशा वाली, हाथ पांव चलाते हुए चेतनावस्था वाली प्रबलता का क्या ही कहना है । परमेश्वर न करे कि किसी के चित्त में प्रबल रूप से कोई चिंता आधिपत्य जमा ले । जो इसकी लपेट में आ जाता है वह अपने सुख और स्वतंत्रता से सर्वथा जाता रहता है । यो धन बलादि का अभाव न होने पर नहाने खाने घूमने भादि की साधारण चिता बहुधा रहा ही करती हैं । इससे उनके द्वारा कोई विशेष कष्ट वा हानि नहीं जान पड़ती । बरंच उनका नाम चित्त का जातिस्वभाव मात्र है। पर सूक्ष्म विचार से देखिए तो थोड़ा बहुत स्वच्छन्दता का नाश वे भी करती ही रहती हैं । मिठाई खाने को जी चाहेगा और लाने वाले सेवक किसी दूसरे काम को गए होगे तो हमें शख मार के हलवाई की दुकान पर जाना पड़ेगा अथवा नौकर राम की मार्ग प्रतीक्षा में इमरी बातों से विवशतः मन हटाना पड़ेगा।