पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४२५

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चिंता ]
४०१
 

चिता ] ४०१ यह छोटे रूप की कायिक वा मानसिक पराधीनता वा गुलामी नहीं है तो क्या है ? तिसमें भी जब हमें कोई असाधारण चिता आ घेरती है तब तो हम सचमुच उसके क्रीत दास, काष्टपुत्तलक वा यों कहो कि बलिपशु ही हो जाते हैं। यदि हमसे कोई पूछे कि वह कौन सी निर्दयिनी है जो बड़े २ महारानों को साधारण सेवकों की चिरौरी के लिए विवश करती है, बड़े २ योद्धाओं को उठने बैठने के काम का नहीं रखती, सुखा के कांटा बना देती है, बड़े २ पंडितों की विद्या मुला कर बुद्धि हर लेती है तो हम छुटते ही यह उत्तर देंगे कि उसका नाम चिता है। बहुत से बुद्धिमानों का सिद्धांत है कि अच्छे कामों तथा अच्छी बातों की चिता से शरीर और मन की हानि नहीं होती । उनका यह कथन लोकोपकारक होने से आदरणीय है और अनेकांम में परिणाम के लिए सत्य भी है पर हम पूछते हैं, आपने किस ईश्वरभक्त, देशभक्त, सद्गुणानुरक्त को हृष्ट पुष्ट और मनमौजी देखा है ? ऋषियों, सत्कवियों और फिलासफरों के जितने साक्षात् वा चित्रगत स्वरूप देखे होंगे किसी की हड्डियों पर दो अंगुल मांस न पाया होगा। उनके चरित्रों में कभी न सुना होगा कि ठीक समय खाते और नीद भर सोते थे। यह माना कि वह अपने काल्पनिक आनद के आगे संसार के सुख दुःखादि को तुच्छ समझते हैं, पर सांसारिक विषयों से रंजेपुंजे बहुधा नहीं ही होते,पुष्कल धन और बलका अभाव ही रहता है क्योंकि उनका हृदय चिंता की एक मूर्ति का मंदिर है जिस की स्तुति में हमारे अनुभवशील महात्माओं का वाक्य है कि 'चिता चिता समाख्याता तस्माच्चिन्तागरीयसी' लिखने में भी एक बिंदु अधिक होता है इसी से ), चिता दहति निर्जीवं चिंता जीवयुतां तनुम् ।' सच तो यह है कि जिसे शीघ्र चिता पर पहुंचना होता है वा यों कहो कि जोते ही जी चिता पर सोना होता है वही इसके चंगुल में फंसता है। यह यदि अच्छे रूप की हुई तो अगर चंदनादि की चिता की बहिन समझनी चाहिए, जिस को सुगंधि से दूसरों को अवश्य सुख मिलता है और शास्त्र के अनुसार चाहे सोने वाली आत्मा भी कोई अच्छी गति पाती हो पर भस्म हो जाने में कुछ भी संदेह नहीं है और यदि कुत्सित रीति की हुई तो आत्मा अवश्य उसी नर्क में जीते मरते बनी रहती है जिस नर्क में नील आदि कुकाष्ट की चिता में जलने वाले जाते हैं और ऐसों के द्वारा दूसरों का यदि दैवयोग से अनिष्ट न भी हो तथापि हित होना तो सम्भव नहीं होता। क्योंकि बुरे वृक्ष का फल अच्छा हो यह सम्भव नहीं है। और चिंता की बुराई में कही प्रमाण नहीं ढूंढना है, सहृदयमात्र उस की साक्षी दे सकते हैं। ऊपर से दाद में भी खाज यह है कि उसके लिए कारण अथवा आधार की भी कमी नहीं। चित्त सलामत हो तो समस्त सृष्टि के जड़ चेतन दृश्य अदृश्य अवयवमात्र चिता का उत्पादन अथच उत्तेजन करने भर को बहत हैं। परमात्मा न करे कि किसी को अन्न वस्त्र की चिंता का सामना करना पड़े जैसे कि आज दिन हमारे बहुसंख्यक देशभाइयों को करना पड़ता है। ऐसी दशा में मनुष्य जो कुछ न कर उठाये वही थोड़ा है। संभ्रम रक्षा की चिता उस से भी बुरी होती है २६