पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४२६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४०२ [ प्रतापनारायण-पंचावली विसके कारण न्याय धर्म और गौरव सब आले पर धर के लोग केवल इस उद्योग में लग पाते हैं कि कल ही चाहे भून चबान का सुभीता न रहे, मरने पर चाहे नककुण्ड से कमी ममिकाले नायं, पर आज तो किसी तरह चार जाने की दृष्टि मे बात रही जानी पाहिए । इस से भी घृणित चिता आज कल के बाबू साहबो की है जो स्वयं उदाहरण बन कर चाहते हैं कि देश का देश अपनी भाषा, भोजन, भेष भाव और भ्रातृत्व को तिलांजुली दे के शुरु काले रंग का गोरा साहब बन जाय, स्त्रियो का पतिव्रत और पुरुषों का आयत्व कही ढूंढे न मिले, वेद भी अंग्रेजो स्वरो मे पढा जाय तथा विलायती ही कारीगरियो की किताब समझी जाय ईश्वर भी हमारी कानून का पाबंद बनाया जाय मही तो देश की उन्नति ही न होगी। इधर हमारी सी तबियत वालो को यह विता सगी रहती है कि जगदीश्वर को कल प्रलय करना अभीष्ट हो तो आज कर दे पर हमारे भारतीय भाइयो का निजत्व बनाए रखे । उन्नति और अवनति कालचक्र की गति से सभी को हुवा करती है पर गधे पर चढ बैकुन्ठ जाना भी अच्छा नहीं। कहां तक कहिए बिसे जिस प्रकार की चिंता सताती होगी उस का जी ही जानता होगा कि यह कैसी दुरी व्याधि है । जब परलोक और परब्रह्म प्राप्ति तक कि चिता हमे दुनिया के काम का नहीं रखती, शरीर तक का स्वत्व छुडवा के जंगल पहाडो मे जा पड़ने को विवश करती है तब संसारिक चिता के विषय मे हम क्यो न कहे कि राम ही बचाव इसकी झपेट से। जिन अप्राणियो को सोचने समझने की शक्ति नहीं होती, जिन पशुओ तथा पुरुषो को भय निद्रादि के अतिरिक्त और कोई काम नहीं सूझता वे उनसे हजार दरजे अच्छे होते हैं जिन्हे अपनी वा पराई फिकर चढी हो रहती हो। इस छूत से केवल सच्चे प्रेमी ही बच सकते हैं जिन्होने.सचमुच अपना चित्त किसी दूसरे को देकर कह दिया है कि लो अब इस दिल को तुम्ही आग लगाओ साहब! फिर वह क्यो न निश्चिन्त हो जायं-- “जब अड्डा ही न रहेगा तो बैठोगे काहे पर' । अथवा पूरे विरक्त, जिन्हो ने मन को सचमुच मार लिया है, वे भी चाहे बचे रहते हो पर जिन्हे जगत् से कुछ भी सबंध है वे कदापि नहीं बचते और बचे तो जड़ता का लांक्षण लगता है इस से और भी आफत है। गुड भरा हंसिया न निगलो बने न उगलते बने। फिर क्यो न कहिए कि चिता बड़ी हो बुरी बला है। यदि संगीत साहित्यादि की शरण ले के इसे थोडा बहुत भुलाए रहो तो तो कुशल है नहीं तो यह आई और सब तरह से मरण हुवा। इसलिए इससे जहां सक हो बचे ही रहना चाहिए। बचने मे यदि हानि या कष्ट हो तो भी डरना उचित नहीं बरंच कठिन व्याधि की निवृत्यर्थ कड़ औषधि के सेवन समान समझना योग्य है । बचने का एक लटका हमारा भी सीख रक्खो तो पेट पड़े गुन ही देगा, अति जिस काम को किए बिना भविष्यत् मे हानि को आशंका हो उसकी पूर्ति का यल करते रहो पर तद्वि- बयिनी चिता को पास न आने दो। इस रीति से भी बहुत कुछ बचाव रहेगा। __खं० ९, सं० ५ ( दिसंबर ह. सं०९)