पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४३

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देशोन्नति ] २१ किया उसको भी सुख मिलना कही लिखा है ? अधर्मी का भी मनोर्थ कभी सिद्ध होता है? धन के लिये लाग्व सिर पटका करो, अकेले बिलायत जाओगे, भूखों के मारे रमाबाई की सी दशा होगी ( वह वहां जा के ईसाई हो गई )। अकेले कारखाना खोलोगे ( किसी की सहायता न लेना ) घर फूंक तमाशा देखोगे। फिर क्या ही देशोन्नति होगी ! विद्या के लिये गुरूजी से प्रीति न करना, चौदही विद्या आ जायगी। बल के लिये अखाड़े वालों से जली कटी कहना, सब कसरतें सीख जाओगे। बिरादरी बालों को सस्नेह समझाने की क्या आवश्यकता ? संतान युवा हों पूर्णोन्नत जाति में ध्याह देना । देशोन्नति तो घर की लौंड़ी है। कहने की सौ बातें हैं पर समझे रहो कि (करनी सार है कथनी ग्वुवार है )। बड़ी बड़ी सभा, बड़े २ लेक्चर, बड़े २ मनोरयों से कुछ न होगा। सब बातों की उन्नति कुछ करने में ही होगी, और करना धरना सामर्थ से अधिक हो नहीं सकता। फिर कहिये तो कौन सी सामथं एतत्देशियों में रह गई है जो हमारे सह व्यसनी महोदय बड़े २ बंधान बाँधा करते हैं ? महा परिश्रम करने पर भी यह संभव नहीं है कि सर्व माधारण में कभी पूर्ण रीति से विद्यादि सद्गुण एक साथ हो सके, और यदि किसी में कोई योग्यता हुई भी तो उसका ठीक बर्ताव न हो सकेगा। देखो राजपि भर्तृहरि जी क्या कहते हैं- "विद्या विवादाय धनन्मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय । स्खलस्य साधोविपरीतमेतत् ज्ञानाय दाताय च रक्षणाय ॥" साधु वही है जो धर्म साधन करे, और धर्म का लक्षण ऊपर वर्णित हो चुका है। ____ अब कौन कह सकता है कि सच्चा मिष्ठ अर्थात् प्रेमी हुए बिना कोई अपनी विद्यादि से किसी का उपकार कर सकेगा। अतएव सबके पहिले प्रेम शाखा विस्तृत करना चाहिए। उसके प्रभाव से सब सुख सागिनी बातें स्वतः हाय आ जायंगी। नहीं तो यह सब कोई जानता है कि "कलि में केवल नाम अधारा ।" एक माला लेके देशोन्नति २ रटा करो-जैसे सब मतवाले "दुःखेच सुख मानिनः" हो रहे हैं वैसे देशहितैषी भी अपना अमूल्य समय खोया करें। आश्चर्य नहीं कि हमारे बहुत से प्रिय पाठक चौकन्ने हुए हों कि कहाँ तो अभी उन्नति का मूल प्रेम को कहते थे, कहाँ सब मतावलंबियों पर कह बैठे। इस असम्बद्ध प्रलाप से क्या है ? महाशय, देशोन्नति का बड़ा भारी बाधक तो मत ही हैं। जब तक उसका भ्रम जाल लगा है तब तक सुख स्वरूप प्रेम देव से भेंट कहाँ ? किसी मत का अगुवा कब चाहेगा कि मेरे अतिरिक्त दूसरे की बात जमे । कौन न चाहता होगा कि मनुष्य मात्र मेरे चेले होकर अंध भेंड़ को भौति मेरे पीछे हो लें ? कौन दूसरे मत के लोगों की निंदा नहीं करता? कब कहाँ कोन अपने साथियों को छोड़ दूसरों की किसी प्रकार की बड़ती देख सकता है ? क्या इन लक्षणों से किसी देशी भाई के हित की आशा हो सकती है ? सच तो यों है मत शब्द का अर्थ हो नास्ति "नेस्ती व मनहूसी" का वाचक है, इसमें क्या तत्त्व ? यद्यपि सभी मतमतांतर के ग्रंथों में लोगों के फुसलाने के लिये थोड़े से बुद्धिमानों के सिद्धांत, जैसे ईश्वर की भक्ति, जीव पर दया, सहवासियों से प्रोति, सत्य भाषणादि