पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४३२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[प्रतापनारायण-ग्रंथावली उ फिर विसुओं ते ( बेश्या से भी ) बहि जायं' और फारसी में 'आबरू खाक में मिला बैठे' इत्यादि। इस प्रकार पानी की ज्येष्ठता और श्रेष्ठता का विचार करके लोग पुरुषों को भी उसी के नाम से आप पुकारने लगे होगे। यह आप का समझना निरर्थक तो न होगा, बड़प्पन और आदर का अर्थ अवश्य निकल आवंगा, पर खीच-खांच कर, और साथ ही यह शंका भी कोई कर बैठे तो आयोग्य न होगी कि पानी के जल, बारि, अम्बु, नीर, तोय इत्यादि और भी तो कई नाम हैं, उनका प्रयोग क्यों नहीं करते "आप" ही के सुर्खाब का पर कहां लगा है ? अथवा पानी की सृष्टि सब के आदि में होने के कारण वृद्ध ही लोगों को उसके नाम से पुकारिए तो युक्तियुक्त हो सकता है। पर आप तो अवस्था में छोटों को भी आप आप कहा करते हैं, यह आप की कौन सो विज्ञता है ? या हम यों भी कह सकते हैं कि पानी में गुण चाहे जितने हों, पर गति उसकी नीच ही होती है। तो क्या आप हमको मुंह से आप आप करके अधोगामी बनाया चाहते हैं ? हमें निश्चय है कि आप पानीदार होंगे तो इस बात के उठते ही पानी पानी हो जायंगे, मोर फिर कभी यह शब्द मुंह पर न लावेंगे। सहृदय सुहृद्गण आपस में आप-आप की बोली बोलते भी नहीं हैं । एक हमारे उर्दूदा मुलाकातो मौखिक मित्र बनने की अभिलाषा से आते जाते थे। पर जब ऊपरी व्यवहार मित्रता का सा देखा तो हमने उनसे कहा कि बाहरी लोगों के सामने की बात न्यारी है, अकेले में अथवा अपनायत वालों के आगे आप २ न किया करो, इसमें भिन्नता की भिनभिनाहट पाई जाती है। पर वह इस बात को न माने, हमने दो चार बार समझाया पर वह 'आप' थे, क्यों मानने लगे! इस पर हमें इंझलाहट छूटी तो एक दिन उनके आते ही और आप का शब्द मुंह पर लाते ही हमने कह दिया कि 'आप की ऐसी सैसी' । यह क्या बात है कि तुम मित्र बन कर हमारा कहना नहीं मानते ? प्यार के साथ तू कहने में जितना स्वाद आता है उतना बनावट से आप सांप कहो तो कभी सपने में नहीं आने का । इस उपदेश को वह मान गए । सच तो यह है कि प्रेमशास्त्र में, कोई बंधन न होने पर भी, इस शब्द का प्रयोग बहुत ही कम, वरंच नहीं के बराबर होता है। हिंदी की कविता में हमने दो ही कवित्त इससे युक्त पाए हैं, एक तो 'आप को न चाहे ताके बाप को न चाहिए"। पर यह न तो किसी प्रतिष्ठित ग्रंथ का है और न इसका आशय स्नेह संबद्ध है। किसी जले भुने कवि ने कह मारा हो तो यह कोई नहीं कह सकता कि कविता में भी आप की पूछ है। दूसरी धनानंद जी की यह सवैया है-"आप हो तो मन हेरि हर्यो तिरछे करि नैनन नेह के घाव में" इत्यादि । पर यह भी निराशापूर्ण उपालम्भ है, इससे हमारा यह कथन कोई खंडन नहीं कर सकता कि प्रेम-समाज में "आप" का आदर नहीं है, "तू" ही प्यारा है। संस्कृत और फारसी के कवि भी त्वं और तू के आगे भवान और शुमा (तू का बहुवचन ) का बहुत मादर नही करते पर इससे आपको क्या मतलब ? माप अपनी