पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४३५

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अपव्यय ___ अपव्यय कहते हैं नियमबिरुद्ध वा बुरी रीति से रुपया उठाने को। यह कार्य सक देश के बुद्धिमान बुरा बतलाते हैं और विचार के देखो तो है भी बुरा ही, क्योंकि इस के परिणाम में कर्ता और उस के संबधियों को कष्ट एवं हानि अवश्य होती है । यद्यपि कंजूसी भी इसी के बराबर दूषित गिनी जाती है पर उस के द्वारा मनुष्य केवल दुर्नाम हो का पात्र बनता है, दुर्गति से यदि चाहे तो अपने को तथा आश्रितों को बचाने में असमर्थ नहीं रहता। क्योंकि उसकी पूंजी उसके पास रहती है, उस से काम लेना वा न लेना उसके हाथ है। पर अपव्ययी तो धन संबंधिनी शक्ति से हीन हो कर अंत में आवश्यक कर्तव्यों की पूर्ति के काम ही का नहीं रहता। यों तो परिमाण का उल्लंघन करना सभी प्रकार से हानि मथच कष्ट का कारण होता है, यहाँ तक कि शास्त्राध्ययन, धनोपार्जन, धर्मसाधनादि कार्य जो सभी के मत से परमोत्तम हैं वे भी यदि परिमिति से अधिक किए जायं तो स्वास्थ्य, स्फूति, स्वातंत्र्य आदि को नष्ट कर देते हैं फिर दूषणीय कर्मों का तो कहना ही क्या है। जो धन कृषि बाणिज्य शिल्प सेवादि के द्वारा बड़ी कठिनता से प्राप्त होता है, जिस के बिना संसार का कोई भी व्यवहार नहीं सिद्ध होता, उस को तुच्छ समझ के व्यर्थ नष्ट कर देना था हाथ में रखे हुए उस से उचित काम न लेना बुद्धि के साथ बैर बांधना है। बरंच घोर पाप कहें तो भी अयुक्त न होगा। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने लक्ष्मी अर्थात् धन को भगवान की स्त्री कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि घर के भीतर जितना स्वत्व और जितनी प्रतिष्ठा पुरुषो के उपरांत स्त्रियों की होती है उतनी ही संसारसदन में विश्वव्यापी विश्वेश्वर के उपरांत द्रश्य को है। वरंच भगवान के अस्तित्व में नास्तिकों को नाना प्रकार के संदेह रहते हैं, आस्तिकों से भी भजन यजन का उचित निर्बाह बहुत थोड़ा होता है किंतु लक्ष्मी देवो की महिमा प्रत्यक्ष है । बालक वृद्ध, मूर्ख विद्वान सभी देखते रहते हैं कि यह न हों तो जीवन यात्रा 'पग पग पर्बत' हो जाय, धर्म कर्म इनत भलमंसी तो दूर रही भोजन वस्त्र तक के लाले पड़ जायं जिन से सांस चलमे की आस है। इसी से सभी लोग इन की प्राप्ति के लिये सभी कुछ करने में सन्नद्ध रहते हैं। क्योंकि मतमतांतर के झगड़ालू मुख से स्वीकार करें वा न करें पर मन में सभी जानते हैं कि जगत का कर्ता धर्ता, हर्ता भर्ता ईश्वर यदि कोई है तो लक्ष्मी भी उस की एक महाशक्ति ही है, जिसे दूसरे शब्दों में स्त्री कहना भी साहित्यशास्त्र के विरुद्ध नहीं है । औ स्त्री को पुरुष का आधा अंग वा परम सहायिनी कहते हैं । इसी से रूपराज ( रुपया) भी कभी २ कही २ नगदनारायण वा नकदहूलाशरीफ कहलाते हैं । इस रीति से जो मनुष्य धन के साथ कुव्यवहार करता है वह मानों जगत के स्वामी की अांगी वा साक्षात उसी के साथ बुरा बर्ताव कर के