पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४३६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४१२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली अपराधी बनता है और ऐसे बुखिशत्रु को यदि हम पापी कहें तो क्या अनुचित है। औ न कहें तो भी अपने किए का फल तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों, परसों नहीं बरसों पीछे सही उसे भोगना ही पड़ेगा। क्योंकि यह बात बच्चे तक जानते हैं कि पाप करने से दुःख मिलता है इससे उससे बचना चाहिए । यहाँ पर यदि कोई पूछे कि कैसे बचें तो हम कहेंगे कि पहिले पाप का भेद समझ लीजिए फिर बचने की युक्ति आप ही समझ में आ जायगी। धन के संबंध में प्राचीनों के मत से तीन प्रकार का पाप होता है-१. अन्याय से उपार्जन करना, २. कंजूसी करना, ३. अपव्यय करना। इन में पहिला पाप तो केवल कहने मात्र के लिये है नहीं तो न्याय अन्याय इस शताब्दी में विचारता ही कौन है ? जब आप किसी से बहुत सा रपया कमा लेंगे, जब जो सामने आवैगा धर्ममूति धर्मावतार ही कहता हआ आवैगा, नहीं तो भुनाए क्या लेता है ? यदि कोई सच्चाई का पुतला वा स्पष्टवक्ता कहलाने की बैलच्छि में आ के आप पर पाप के शब्द का प्रयोग कर बैठे तो मानहानि का अभियोग उपस्थित कर के उसकी लेव देव कर डालिएगा। क्योंकि आप हैं लक्ष्मीवान और लक्ष्मी है आदिशक्ति, गिर भला आदि- शक्ति को किस की शक्ति है जो पाप लगावै ? आप ने चाहे लाख गरीबों की जमा हजम की हो पर हम आप को गरीबपर्वर ही कहेंगे क्योंकि हम गरीब हैं और पर्वरिश चाहते हैं जिस की प्राप्ति का यही मंत्र है। आप किसी प्रकार रुपया जमा कर लीजिए आप को पापी कहै वह आप हो पाती है, क्योंकि जिन का धन आप ने हथिआया है वह अवश्य आलस्य वा अज्ञान के कारण अपना रुपमा बचाने के योग्य न थे, नहीं तो आप के बाप भी उन्हें खोखोन नं कर सकते । इस से बोध होता है कि उनके पास द्रव्य का बना रहना ईश्वर ही को अभिप्रेत न था। फिर भला आपने परमात्मा को इच्छा पूर्ण की है वा पाप किया है ? जिन को आप ने शारीरिक सुख का सुभीता दिया है वा मोठी २.बातों से मोहित कर लिया है उन्ही का रुपया हस्तगत किया है और सुख- लोलुषों तथा मोहग्रस्तों के पास धन रहता तो अनर्थ ही करता, उससे आप ने उन्हें बचा लिया । मनुष्य कुछ खो के सीखता है,यदि खोने वाले मनुष्य होगे तो आप की दया से अपना भला बुरा सोचना सीख जाएंगे। फिर आपने बुराई क्या की जो उन्हें सीखने के योग्य बना दिया। यदि पुराने ढंग के लोगों की बातों से अपने पूर्वकृत कर्मों पर ग्लानि आति हो तो प्रत्येक पाप का प्रायश्चित भी हो सकता है । उपाजित द्रव्य से अनेक उत्तम कार्य ऐसे हो सकते हैं जो पूर्वकृत से कही उत्तम हैं। सिद्धांत यह कि धन संचय में छप्पन कोठे जी दौड़ना वाहियात है, साख बात कि यही एक बात है कि अपने देश जाति, बन्धु बांधव तथा अपने ऊपर विश्वास रखने वालों को बचा के और किसी को प्राणहानि, मानहानि, सर्वसहानि न कर के जैसे बने वैसे रुपया इकट्ठा करना पुरुष का कर्तव्य है और अपने साथ दुष्टता किया चाहे उससे बचने वा बदला लेने में वो बन पड़े वही कर उठाना बुद्धिमानी है। रहा दूसरा पाप, वह भी वहीं तक पाप है जहां तक सामथ्र्य होते हुए अपनी या अपने लोगों को उचित आवश्यकता पूरित न की जाय । इतना करने पर भी यदि कोई कंजूस मक्खीचूस बनाये तो उसे निरा इस समझना