पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
अपव्यय ]
४१३
 

अपव्यय ] ४१३ चाहिए । खाने पहिनने खिलाने पहिनाने में जब आप कष्ट सहना सहाना बचाए रहते हैं तो बस घर के धान पयार में मिलाना व्यर्थ है। हां, तीसरा पाप निश्चय ऐसा है जो धनहीन, तनक्षीण, मनमलीन कर के जीवित को नर्कमय बना देता है। पर उसका समझना भी साधारण सम्झ वालों का काम नहीं है। हमने माना कि आजकल काल कर्मादि की गति से हमारी दशा बहुत शोचनीय हो रही है पर यह भी क्या बात है कि जिसे देखो वह हमारा शिक्षादाता ही बनता आता है। यहां तक कि जिन विषयो में हम आज भी दूसरों को शिक्षा दे सकते हैं उनमें भी लोग हमारे शिक्षक बनने को मरे जाते हैं। यह भी यदि विदेशियों और विर्मियों की ओर से होना तो कोई आक्षेप का स्थल न था क्योंकि संसार के सभी लोग अपनी रीति नीति चाल ढाल को दूसरों से श्रेष्ठ समझते हैं और दूसरों में से जिस के धर्म कर्म व्यवहार बर्ताव आदि का भेद नहीं जानते उसे अपने रंग ढंग का उपदेश कर के जो वेवल स्वार्थसाधन का ढंचर डाले तो नीतिकौशल है अथवा यदि निरानिरी उपदेश पात्रों ही का भला बिचार ( यह बहुधा देखने में नहीं आता ) तो उनकी सज्जनता है। यह दोनों रीतियां आक्षेप के योग्य नहीं हैं पर हंसी तब आती है जब कोई 'मेरे घर से आग लाई नाम धरा बंसदर' का उदाहरण बन के हमारा तत्व तनिक भी न जान कर देवल अपनी परदत्त पंजी पर हमारा उपदेष्टा बनना चाहता है। जिनके मतों को उपजे अभी बीस वर्ष भी नहीं हुए, जिनके समुदाय में संस्कृत का पूर्ण विद्वान तो गूलर का फूल है, हिंदी साहित्य का समझने वाला दिया ले के देखो तो ढूंढ़े न मिले, वह हमारे उत्कृष्ट श्रेणी के मान्य ग्रंथों को दूषित ठहरा के हमें धर्म सिखलाया चाहते हैं । जो हमारी सामाजिक रीति के अनु- सार समाज के इतने स्नेही और स्नेहभाजन हैं कि पानी पान के पात्र भी नहीं कहे जा सकते, जिन की भाषा भोजन भेष भाव इत्यादि में देशीपन की गंध तक नहीं आती वह हमें व्यवहार शिक्षा देने को उधार खाए फिरते हैं। वाह रे कलियुग, हमारी समझ में इन सिखलाने वालों को पहिले आप ही सीखना उचित है कि किसको किस रीति से क्या सिखलाना फलीभूत हो सकता है। पहिले जो बातें हम दूसरों को सिखलाते हैं वह हमें स्वयं सीखनी चाहिए नहीं तो केवल जीम की लपालप से अपना मुंह तथा दूसरों के कान दुखाने और दोनों का समय नष्ट करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। इन दिनों जितने लोग हमारे देशी भाइयों को यह उपदेश करते हैं कि देश में धन नही रहा, उस की वृद्धि का उपाय करना चाहिए और व्यर्थ न उठने देना चाहिए, उनके हम बिरोधी नहीं हैं क्योंकि प्रत्यक्ष देखते हैं कि नाना भांति के कर और निस्सार पदार्थों के द्वारा हमारा सारा रुपया दिन २ विदेश को लदा जाता है, जब तक हम सब बकवासें छोड़ के अपने शिल्प और व्यापार की वृद्धि में तत्पर न होगे इस घटी को पूरा नहीं कर सकते। यह भी हम मानते हैं कि धन की वृद्धि यदि हमारे पक्ष में दुस्साध्य हो तथापि उसे नष्ट तो कदापि न होने देना चाहिए और इस का एकमात्र उपाय अपव्यय से बचे रहना है। जो अपव्ययी नहीं है वह यदि दैवयोग से कमाने में