पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४३८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली शक्तिमान न हो तो भी धन के पूर्ण अभाव का पुःख नहीं उठाता। पर हम नहीं जानते कि विदेशी तथा उन के चेले एतद्देशी हम पर अपव्यय का दोष क्यों लगाते हैं ? यदि हम हिंदुस्तान की सनातनी मर्यादा न छोड़ें तो कभी अपव्यय नहीं कर सकते अतः हमें अपव्ययी कहने वाले आप ही अपव्ययी हैं तथा यही देश का सत्यानाश करते हैं। खं० ९, सं० ८ ( मार्च ह. सं. ९) होली है तुम्हारा सिर है ! यहां दरिद्र की आग के मारे होला ( अथवा होरा-भुना हुवा हरा चना ) हो रहे हैं, इन्हें होली है, हैं! ____ अरे कैसे मनहूस हो ? बरस २ का तिवहार है, उसमें भी वही रोनो सूरत ! एक बार तो प्रसन्न होकर बोलो, होरी है ! अरे भाई हम पुराने समय के बंगाली भी तो नहीं हैं कि तुम ऐसे मित्रों की जबर- दस्ती से होरी ( हरि ) बोल के शांत हो जाते । हम तो बीसवीं शताब्दी के अभागे हिंदुस्तानी हैं जिन्हें कृषि, वाणिज्य, शिल्प, सेवादि किसी में भी कुछ तंत नहीं है । खेतों की उपज अतिवृष्टि, अनावृष्टि, जंगलों का कट जाना, रेलों और नहरों की वृद्धि इत्यादि ने मट्ठी कर दी है । जो कुछ उपजता भी है वह कट के खलिहान में नहीं आने पाता, ऊपर ही ऊपर लद जाता है । रुजगार ब्यौहार में कहीं कुछ देखी नहीं पड़ता। जिन बाजारों में अभी दस बरस भी नहीं हुए कंचन बरसता था, वहां अब दूकानें भांय २ होती हैं। देशो कारीगरों को देश ही वाले नहीं पूछते । विशेषतः जो छाती ठोंक २ ताली बजवा २ कागजों के तखते रंग २ कर देशहित के गीत गाते फिरते हैं वह और भी देशो वस्तु का व्यवहार करना अपनी शान से बईद समझते हैं। नौकरी बी० ए०, एम. ए. पास करने वालों को भी उचित रूप में मुश्किल से मिलती है। ऐसी दशा में हमें होली सूझती है कि दिवाली! ___यह ठीक है। पर यह भी तो सोचो कि हम तुम वंशज किमके हैं ? उन्ही के न जो किसो समय बसंत पंचमी ही से- 'आई माघ को पांच बूढी डोकरियां नाचे' का उदाहरण बन जाते थे, पर जब इतनी सामर्थ्य न रही तब शिवरात्रि से होलिकोत्सव का आरम्भ करने लगे। जब इसका भी निर्वाह कठिन हुआ तब फागुन सुदी अष्टमी से- होरी मध्ये आठ दिन, ब्याह माह दिन चार । शठ पंडित, वेश्या वधू सबै भए इकसार ॥