पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४३९

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होली है ]
४१५
 

होली है ] ४१५ का नमूना दिखलाने लगे। उन्ही आनंदमय पुरुषों के बंश में होकर तुम ऐसे मुहरंमी बन जाते हो कि आज तेवहार के दिन भी आनन्द बदन से होली का शब्द तक उच्चारण नहीं करते । सच कहो, कहीं होली बाइबिल की हवा लगने से हिंदूपन को सलीब पर तो नहीं चढ़ा दिया ? तुम्हें आज क्या सूझी है। जो अपने पराए सभी पर मुंह चला रहे हो ? होली बाइबिल अन्य धर्म का ग्रन्थ है। उसके मानने वाले विचारे पहिले ही से तुम्हारे साथ का भीतरी बाहिरी संबंध छोड़ देते हैं । पहिली उमंग में कुछ दिन तुम्हारे मत पर कुछ चोट चला भी दिया करते थे, पर अब बरसों से वह चर्चा भी न होने के बराबर हो गई है। फिर उन छुटे हुए भाइयों पर क्यों बौछार करते हो ? ऐसी ही लड़ास लगी हो तो उनसे जा भिड़ो जो अभी तुम्हारे ही दो चार मान्य ग्रन्थों के मानने वाले बनते है, पर तुम्हारे ही देवता पितर इत्यादि की निंदा कर कर के तुम्हें चिढ़ाने हो में अपना धर्म और अपने देश की उन्नति समझते हैं। अरे राम राम ! पर्व के दिन कौन चरचा चलाते हो! हम तो जानते थे तुम्ही मनहूस हो, पर तुम्हारे पास बैठे सो भी नसूढ़िया हो जाय। अरे बाबा दुनिया भर का बोझा परमेश्वर ने तुम्ही को नहीं लदा दिया। यह कारखाने हैं, भले बुरे लोग भोर दुःख सुख को दशा होती ही हुवाती रहती है। पर मनुष्य को चाहिए कि जब जैसे पुरुष और समय का सामना आ पड़े तब तैसा बन जाय । मनको किसी झगड़े में फंसने आज तुम सचमुच कहीं से भांग खा के आए हो। इसी से ऐसी बेसिर पर की हाक रहे हो। अभी कल तक प्रेम सिद्धांत के अनुसार यह सिद्ध करते थे कि मन का किसी ओर लगा रहना ही कल्याण का कारण है और इस समय कह रहे हो कि 'मन को किसी झगड़े में फंसने न दे'। वाह, भला तुम्हारी किस बात को मानें ? ___ हमारी बात मानने का मन करो तो कुछ हो ही न जाओ। यही तो तुम से नही होता। तुम तो जानते हो कि हम चोरी चहारी सिखावेंगे। नहीं यह तो नहीं जानते । और जानते भी हों तो बुरा न मानते क्योंकि जिस काल में देश का अधिकांश निर्धन, निर्बल, निरुपाय हो रहा है, उसमें यदि कुछ लोग 'बुभुक्षितः कि न करोति पापं' का उदाहरण बन जाये तो कोई आश्चर्य नहीं है। पर हां यह तो कहेंगे कि तुम्हारी बातें कभी २ समझ में नहीं आती। इस से मानने को जी नहीं चाहता। यह ठीक है, पर याद रक्खो कि हमारी बातें मानने का मानस करोगे तो समझ में भी आने लगेंगी, और प्रत्यक्ष फल भी देंगी। अच्छा साहब मानते हैं, पर यह तो बतलाइए, जब हम मानने के योग्य ही नहीं हैं तो कैसे मान सकते हैं?