पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४४३

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धोखा ]
४१९
 

धोखा ] ४१९ हैं, पर जिसके विषय में कोई निश्चयपूर्वक 'इदमित्थं' कही नहीं सकता, जिसका सारा भेद स्पष्ट रूप से कोई जान ही नहीं सकता वह निर्धम या भ्रमरहित क्योंकर कहा जा सकता है। शुद्ध निभ्रम वह कहलाता है जिसके विषय में भ्रम का आरोप भी न हो सके। पर उसके तो अस्तित्व तक में नास्तिकों को संदेह और आस्तिकों को निश्चित ज्ञान का अभाव रहता है, फिर वह निभ्रम कैसा? और जब वही भ्रम से पूर्ण है तब उसके बनाए संसार में भ्रम अर्थात् धोखे का अभाव कहां? वेदान्ती लोग जगत् को मिथ्या भ्रम समझते हैं। यहां तक कि एक महात्मा ने किसी जिज्ञासु को भलीभांति समझा दिया था कि विश्व में जो कुछ है, और जो कुछ होता है, सब भ्रम है । किन्तु यह समझाने के कुछ ही दिन उपरांत उनके किसी प्रिय व्यक्ति का प्राणांत हो गया, जिसके शोक में वह फूट २ कर रोने लगे। इस पर शिष्य ने आश्चर्य में आकर पूछा कि आप तो सब बातों को भ्रमा- स्मक मानते हैं, फिर जान बूझ कर रोते क्यों हैं ? उसके उत्तर में उन्होंने कहा कि भ्रम ही है। सच है, .प्रमोत्पादक भ्रमस्वरूप भगवान के बनाए हुए भव ( संसार ) में जो कुछ है भ्रम ही है। जब तक श्रम है तभी तक संसार है वरंच संसार का स्वामी भी तभी तक है, फिर कुछ भी नहीं ! और कौन जाने हो तो हमें उससे कोई काम नहीं ! परमेश्वर सबका भ्रम बनाए रक्खे इसी में सब कुछ है । जहाँ भरम खुल गया वी लाख की भलमंसो खाक में मिल जाती है । जो लोग पूरे ब्रह्मज्ञानी बन कर संसार को सचमुच माया को कल्पना मान बैठते हैं वे अपनी भ्रमात्मक बुद्धि से चाहे अपने तुच्छ जीवन को साक्षात् सर्वेश्वर मान के सर्वथा सुखी हो जाने का धोखा खाया करें; पर संमार के किसी काम के नहीं रह जाते हैं, बरंच निरे अकर्ता, अभोक्ता बनने की उमंग में अकर्मण्य और 'नारि नारि सब एक हैं जस मेहरि तस माय' इत्यादि सिद्धांतों के मारे अपना तथा दूसरों का जो अनिष्ट न कर बैठे वही थोड़ा है, क्योंकि लोक और परलोक का मजा भी धोखे ही में पड़े रहने से प्राप्त होता है। बहुत ज्ञान छांटना सत्यानाशी की जड़ है ! ज्ञान की दृष्टि से देखें तो आपका शरीर मलमूत्र, मांस मनादि, घृणास्पद पदार्थों का विकार मात्र है. पर हम उसे प्रीति का पात्र समझते हैं और दर्शन स्पर्शनाद से आनंद लाभ करते हैं । हमको वास्तव में इतनी जानकारी भी नहीं है कि हमारे शिर में कितने बाल हैं वा एक मिट्टो के गोले का सिरा कहां पर है, किंतु आप हमें बड़ा भारी विज्ञ और सुलेम्षक समझते हैं तथा हपारी लेखनो या जिह्वा को कारीगरो देख २ कर सुख प्राप्त करते हैं ! विचार कर देखिए तो धन जन इत्यादि पर किसी का कोई स्वत्व नहीं है, इस क्षण हमारे काम आ रहे हैं, क्षण ही भर के उपरांत न जाने किसके हाथ में वा किस दशा में पड़ के हमारे पक्ष में कैसे हो जायं, और मान भी लें कि इनका वियोग कभी न होगा तो भी हमें क्या ? आखिर एक दिन मरना है, और 'मंदि गई आंखें