पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४४९

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आप बीति कहूं कि जगबीती]
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आप बीती कहूं कि जगबीती ] साथ पत्रव्यवहार का अवकाश नहीं रहता क्योंकि हम एक विशेष अभ्यागत की सेवा सुश्रूषा में लगे रहते हैं। इस प्राचीन रीति के अनुसार हमारे मित्र रोगराज ने गत वर्ष देह नगर में पदार्पण किया था पर हमने उनका उचित आदर मान नहीं किया। केवल कनपुरिहा मित्रों की भांति चार आंख हो जाने पर घोड़े की नाई हे हे करके या यों ही पानी पान मात्र को पूछपाछ के टालमटोल करते रहे । जहाँ आपरूप आंखों की ओट हुए कि फिर कोई सम्बन्ध नहीं! यद्यपि हृदय से हम सदा चाहते हैं कि उन्हें किसी प्रकार ऐसा नीचा दिखा कि फिर वह किसी काम के न रहें पर करें क्या जब तक मौका नहीं मिलता तब तक मुख से मित्रता का स्वांग भरते हैं। आप समझिए रोग- राज भी तो बच्चे नहीं हैं, सारे भारत को चरे बैठे हैं, हमारी चालबाजी कब तक न साड़ते ? दो ही चार बार के बर्ताव से समझ गए कि सीधी उंगली से घी न निकलेगा पर न जाने किस कारण से उनका भी चित्त दुचित्ता सा था। अतः हमारे साथ पूरी चाल न चल केबल कभी ही कभी कुछ २ हाथ दिखाते रहे । जो सज्जन ब्राह्मण' को रुचिपूर्वक देखते हैं उन्होंने देखा होगा कि गए बरस किसी २ मास में हमने एक अक्षर भी नहीं लिखा। लिखना कैसा यदि हमी उत्तरदाता होते तो कुछ दिन के लिए अपने पाठकों से छुट्टी लेते वा मुंह छिपा जाते । पर यस्मात 'ब्राह्मण' इन दिनों सौभाग्य- वशतः एक क्षत्रिय वीर के आश्रय में है अस्मात उसका निर्वाह हमारे उपेक्षा करने पर भी उचित और उत्तम रीति से होता गया। यों द्वेष वा अरसिकता से जो चाहे सो कहा सुना करें । लिखने का हमें आप व्यसन है पर अकेला मनुष्य घर आए लश्कर की आवभगत में फंसा हो तो दुसरे काम क्यों कर सकता है ? ____ इस भांति रोगराज के और हमारे दावपेंच बारह मास तक चला रहे अंत में कई बार जिच होने के कारण चैत्र लगते ही वह झंझला ही तो रठे। इस देश के लोगों में यह बड़ा दुःखदायक और हानिकारक दोष है कि आरम्भ मे रोग को रोग नही सम- झते। पर हमारे लिए तो आरंभ न था इससे उनके तेवर बदले हुए देखते ही प्रतिकार की चेष्टा करने लगे। किंतु अभाग्य समझिए चाहे अज्ञान समझिए जिसके हेतु से हम एक ऐसे धोखे में पड़ गए कि ईश्वर सबको बचावे ! किसी की निंदा करना हम अच्छा नहीं समझते पर सच्चो बात इसलिए प्रकाश किए देते हैं कि दुसरे लोग धोखे में पड़ के कष्ट न सहें। एक संपास भेषधारी व्यक्ति कानपुर में आए थे और मिलने जुलने वालों के द्वारा प्रसिद्ध कर दिया था कि आप आयुर्वेद के प्रामाणिक ग्रथों को पढ़े हुए हैं, उनके प्रायः सभी अंगो मे अ स रखते हैं, उन्ही के अनुसार चिकित्सा करते हैं और उसो विद्या के प्रचारार्थ यहां आए हैं। इतना ही नहीं बरंच कई भलेमानसों को सुश्रुत पढ़ाना और कई को औषधि देना भी आरंभ कर दिया था। जो लोग बिलायती दिमाग के उनके पास जाते थे उनके संमुख पश्चिमीय चिकित्सा का अधूरापन भी बातों मे सिद्ध कर देते थे तथा आर्य शाक्तों की और मामूली बातें भी जिज्ञासुओं को सुनाया करते थे। ऐसी २ बातों से कुछ लोगों को उन पर श्रद्धा हो गई थी। उन्हीं लोगों के द्वारा हमें भी दो एक बार उनसे मिलने का अवसर पड़ा था। उसमें हम पर दया करने वाले