पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
आप बीति कहूं कि जगबीती]
४२७
 

माप बीती कहूं कि जगबीती ] ४२. थे वहां तक सवारी पर जाने योग्य भी न रहे ! एक दयालु सनन के द्वारा समाचार भेजा तो उत्तर पाया कि कुछ चिता नहीं है, औषधि वही सेवन किए जायं। ऊपरी कष्ट अमुक यत्न से आज ही निवृत्त हो जायगा, पर वह यत्न और भी दाद में खाज हुवा! यह दुःख भी दो दिन जी कड़ा करके भुगता और बीच २ में चाहा कि एक बार स्वामी जी के दर्शन हो जाते तो अपना रोना ही सुना देते पर हम गुनाहगारों का ऐसा भाग्य कहाँ ? अब वह दिन कहां कि बिना बुलाए आ आ के आप बैठके ही मन में पड़े रहें ! इधर रुपए की भी चर्चा आई जो खास बिलायती डाक्टर भी सप्ताह दो सप्ताह में न व्यय करा सकें। कहां तक कहिए कि 'दुश्मनी ने सुना न होगा जो हमें दोस्ती ने दिग्वलाया!' दश ही पन्द्रह दिन में 'मरज बढ़ता गया ज्यों २ दवा की' का पूरा उदा- हरण देख लिया। खाट से उठ के आंगन तक आना दुष्कर और पड़े रहना भी कठिन हो गया! नीद और भूख के साथ नए विदेशियों की इतनी जान पहिचान रह गई पर बल से राम रमौवल भी मानो कभी न थो! इस प्रकार जब देखा कि अब अन्य चिकित्सा का अवलंबन किए बिना प्राण का भय है तो श्री पं० कालिकाप्रसाद त्रिपाठी की शरण ली। यह इस जिले के विधनू नामक ग्राम के बासी कान्यकुब्ज हैं और बंगाल में कई वर्ष रह के वैद्यविद्या भली भांति सीखे हैं । महाराज बेतिया के यहां परीक्षा में उत्तीर्ण हो के वहां से तथा कई और प्रतिष्ठित राजपुरुषों से प्रशंसापत्र भी प्राप्त कर चुके हैं। यों मरना जीना ईश्वर के हाथ है पर दवा यह बहुत ध्यान दे के सच्चाई के साथ करते हैं । कानपुर में एक आयुर्वेदीय औष- धालय भी खोल रक्खा है जिसकी प्रशंसा करके हम कागज रंगना नहीं चाहते, लोग परीक्षा करके स्वयं जान सकते हैं । हमारा उपर्युक्त दुःसह कष्ट इन्ही तिवारी जी के यत्न से दूर हुआ है और रोग भी यदि निःशेष नहीं हआ तो दब बहुत ही गया है ! इधर हमारे मान्यवर डाक्टर भोलानाथ मिश्र जी ने भी थोड़ा अनुग्रह नहीं किया। कहना अत्युक्त नहीं है कि इस बार इन्ही दो सबनों ने मृत्यु के मुख से तो छुड़ा लिया है आगे हरि इच्छा ! उक्त संन्यासी जी के हाथ से सुनते हैं और भी कई लोग कृतार्थ हो चुके हैं पर हम पूरा पता लगा के अपने पाठकों को स्वामी जी का पूरा परिचय देंगे । अभी तो हमें अपना ही रोना पड़ा है। शारीरिक और मानसिक शक्ति आज भी हम में न होने के बराबर है इससे लिखने पढ़ने का उत्साह ही नहीं रहा फिर हमारे लेख में सरसता कहां से आवै ? यह सहयोगी 'भारतमित्र' की केवल कृपा है कि हम उनकी कलेवरवृद्धि पर आनन्द भी नहीं प्रकाश कर सके पर उन्होंने 'नमंति सफला वृक्षा नमंति विदुषा जनाः' का जीवित उदाहरण दिखा के १३ जुलाई के पत्र में हिन्दी भाषा विषयक लेख के मध्य हमें भी सुलेखकों की श्रेणी में गिन के हमें प्रोत्साहित करने का यत्न किया है। पर हम वास्तव में जो कुछ हैं सो हमी जानते हैं, विशेषत. जिस नगर में रहते हैं वहां दिन २ बरंच छिन २ हमारी उत्साह ऐसा बढ़ाया जाता है कि हमारा हो काम है जो इतने पर भी अपने चरखे को पिन २ चलाए जाते हैं। यदि श्री मन्महाराजकुमार बाबू